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साधना की निष्पत्तियां
सत्य है इसी चिन्तन से अभिप्रेरित होकर वह हर कार्य करता है। इसलिए वह दूसरों के विचारों को कुचलकर ही प्रसन्नता का अनुभव करता है। वह कभी सामंजस्यपूर्ण जीवन नहीं जी पाता। किन्तु पूज्य गुरुदेव सदैव इस भाषा में सोचते थे- "मैं कहता हूं वह सत्य हो सकता है पर तुम कहते हो, वह भी सत्य हो सकता है।' चिन्तन का यह अनाग्रह उनको सदैव सापेक्षता और सत्य के दर्शन कराता रहता था। इस संदर्भ में उनका यह वक्तव्य पठनीय ही नहीं, मननीय भी है-"हर व्यक्ति का अपना चिन्तन
और अपना दृष्टिकोण है। दूसरों का चिन्तन गलत है और मेरा चिन्तन सही, ऐसा आग्रह मैं क्यों करूं? मुझे भगवान् महावीर का अनेकांत दर्शन प्राप्त है। इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के चिंतन में सत्य का अंश हो सकता है। समस्या वहां पैदा होती है, जहां सत्य के एक अंश को सम्पूर्ण सत्य मान लिया जाता है। समस्या का दूसरा रूप है- अपने चिन्तन को सत्य मानकर दूसरों के चिन्तन को असत्य प्रमाणित करने का प्रयास करना। मैं अपने चिन्तन को न तो सम्पूर्ण सत्य मानता हूं और न दूसरों के चिन्तन को नितांत असत्य स्वीकार करता हूं।"
____ अनाग्रही वृत्ति के कारण ही वे स्वयं को पूर्ण न मानकर साधक एवं विद्यार्थी मानते थे। इसी विशेषता ने उन्हें अपने विरोधियों की आलोचना एवं आक्षेप को भी शांति से सुनने की क्षमता दी। यदि कटु आलोचना में भी कोई तथ्य दिखाई देता तो उसे स्वीकार करने में उन्हें हिचकिचाहट या संकोच नहीं होता था। उनका मंतव्य था कि विरोधी पक्ष को शांति से सुनने का अर्थ है सामने वाले व्यक्ति के आग्रह को समाप्त करके अपने पक्ष को स्वीकार कराने का मार्ग प्रशस्त करना।' उनकी इस विरल विशेषता ने अनेक विरोधियों को उनका उन्मुक्त प्रशंसक बना दिया। अनेक बार उनके मुख से यह सुना गया- "मैं प्रशंसकों से कहीं अधिक आलोचकों के बीच अपने आपको आनंदित पाता हूं।" प्रसिद्ध साहित्यकार यशपालजी जैन गुरुदेव की इस विशेषता से बहुत प्रभावित थे। गुरुदेव के व्यक्तित्व के बारे में अपनी टिप्पणी व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा- "जिस तरह वे अपनी बात बड़ी शांति से कहते हैं, उसी तरह दूसरे की बात भी उतनी ही शांति से सुनते हैं। अपने से मतभेद रखने वाले अथवा विरोधी व्यक्ति से भी बात करने में वे कभी उद्विग्न नहीं होते। मैंने स्वयं कई बार उनके