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________________ १०५ अध्यात्म के प्रयोक्ता बाद उनके द्वारा निर्मित निम्न पद्य आत्मालोचन एवं आत्मोत्थान की तीव्र अभिरुचि को व्यक्त करता है यावच्चेतोवृत्ति न भविष्यति मे वशंवदा भगवन्!। तावत् कथमहमस्मिन्, गच्छे सच्छासनं करिष्यामि॥ अर्थात् हे भगवन् ! जब तक मेरी चित्तवृत्ति मेरे वश में नहीं होगी, तब तक मैं इस गण में अच्छा अनुशासन कैसे कर सकूँगा? इसी संदर्भ में उनका यह वक्तव्य भी प्रत्येक साधक को नई प्रेरणा देने वाला है- 'मैं एक-एक कदम पूर्ण सजगतापूर्वक आगे बढ़ाता हूं। जब कभी रात को जग जाता हूं तो यही चिंतन किया करता हूं कि कहीं कोई ऐसा कदम तो नहीं बढ़ा दिया जो प्रगति का पोषक होने पर भी मेरी साधना को भंग करने वाला हो। २०-२५ मिनटों तक गंभीर चिंतन के बाद जब आत्मा में पूर्ण संतोष हो जाता है, तब जाकर मुझे शांति मिलती है।' - आत्मनिरीक्षण के दर्पण में व्यक्ति अपनी कमजोरी को बहुत स्पष्टता से देख सकता है। पूज्य गुरुदेव के जीवन के अनेक ऐसे घटना प्रसंग हैं, जब उन्होंने अपने छोटे से प्रमाद पर भी तीव्र अनुताप व्यक्त किया और भविष्य में उससे एक नया बोधपाठ सीख लिया। यहां एक ऐसे घटना प्रसंग का उल्लेख उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत किया जा रहा है, जिसकी मानसिक पीड़ा का दंश गुरुदेव ने 'मेरा जीवनः मेरा दर्शन' पुस्तक में व्यक्त किया है बात उस समय की थी, जब साध्वीप्रमुखा झमकूजी मौजूद थीं। मंत्री मुनि मगनलालजी मेरे पास बैठे थे। अकस्मात् मेरे मुंह से निकल पड़ा-'मगनलालजी स्वामी! स्वर्गीय पूज्य कालूगणी ने साध्वियों का नेतृत्व झमकूजी को कैसे सौंपा?' साध्वीप्रमुखा झमकूजी कलाकार थीं। उनकी रजोहरण और पुस्तक बांधने की कला बेजोड़ थी। श्रावक-श्राविकाओं की संभाल में वे जागरूक थीं। उनसे परिचित लोग उनका 'जैकारा' आज तक याद करते हैं। आचार्यों के सेवाकार्य में भी उनकी तत्परता अच्छी थी किन्तु वे पढ़ी-लिखी बिल्कुल नहीं थीं। व्याख्यान देना तो दूर, पुस्तक भी ठीक से नहीं पढ़ पाती थीं। फिर भी यह कोई कहने की बात तो नहीं थी। गुरुदेव द्वारा किये गए कार्य के बारे में इस भाषा में सोचना भी उचित नहीं
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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