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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
१०४ भक्त भक्त तारे यामें, राव की बड़ाई कहां? बिना भक्ति तारो ता पै, तारवो तिहारो है।
अर्थात् भक्तों को आप तारते हैं, यह बड़ी बात नहीं पर भक्ति से रहित लोगों को आप तारें तभी आपकी विशेषता है। उसके बाद गुरुदेव प्रायः उन्हें दर्शन देने जाते रहे और अनेक बार संतों को वहां भेजते रहे। कषायमुक्त चित्त ही पूर्वाग्रह से मुक्त होकर अपने विरोधी या आलोचक व्यक्ति के प्रति इतना आत्मीय एवं सामंजस्यपूर्ण व्यवहार कर सकता है।
सबको स्मृति में रखते हुए भी आत्मविस्मृति का क्षण उपस्थित नहीं होने देना, यही गुरुदेव की साधना का सबसे सबल पक्ष था। पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी ने नेतृत्व के गुरुतर पद पर आसीन होकर भी अपने जीवन से शांति और उपशम का जो पाठ दुनिया को सिखाया, वह सबके लिए आदर्श है। आत्मचिंतन एवं आत्मालोचन
आत्मचिंतन साधक के लिए प्राणतत्त्व है। आत्मचिंतन का अर्थ है- स्वयं के व्यवहार, चिंतन एवं कार्यों का लेखा-जोखा करना। जो साधक आत्म-चिंतन नहीं करता, वह अपनी साधना में निखार नहीं ला सकता। पूज्य गुरुदेव का मानना था कि अन्धकार कितना ही सघन क्यों न हो, पूरे बोल्टेज से डेलाइट्स जगा दिए जाएं तो अमावस की रात भी दिन में बदल जाती है। मन का अंधकार कितना ही सघन क्यों न हो, आत्मनिरीक्षण का प्रकाश उसे छिन्न-भिन्न कर देता है।' आत्म-निरीक्षण एक ओर साधक को संभावित स्खलनाओं से बचाता है तो दूसरी ओर अतीत की त्रुटि से भविष्य में नयी प्रेरणा लेने का पथ भी प्रशस्त करता है। आत्मचिंतन के बारे में पूज्य गुरुदेव का स्पष्ट मंतव्य था- 'कोई व्यक्ति अपने जीवन को मुड़कर देखे और चिंतन करे- मैं कैसा हूं? इस एक वाक्य पर गहरी अनुप्रेक्षा करते-करते वह ईमानदारी के साथ अपनी आदतों
और व्यवहारों को समझ सकता है और गलत आदतों एवं व्यवहारों में परिष्कार ला सकता है।'
पूज्य गुरुदेव सतत आत्मा की सन्निधि में निवास करना चाहते थे। वे अपनी हर प्रवृत्ति का गहरा आत्मालोचन करते थे। आचार्य बनने के