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________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १०६ था। मंत्री मुनि बहुत गंभीर और समयज्ञ साधु थे । वे साधारण सा उत्तर देकर मौन हो गए। समय बीता। साध्वीप्रमुखा झमकूजी दिवंगत हो गईं। उनके बाद साध्वियों की जिम्मेदारी लाडांजी को दी गई। उस संदर्भ में मंत्री मुनि कब चूकने वाले थे। एक दिन अवसर देखकर वे बोले – 'झमकूजी को लेकर आपने कालूगणी के बारे में जो कुछ कहा, आपको याद ही होगा । आपने भी यह काम कैसे किया ? समय पर किसी को कुछ भी करना पड़ता है, वह तत्कालीन परिस्थितियों पर निर्भर करता है।' मुझे काटो तो खून नहीं। मेरे पास कहने के लिए कोई बोल नहीं। अपने आप में सिमट गया। मुझे संकोच और ग्लानि का अनुभव हुआ । मेरे चिन्तन का प्रवाह तब स्वयं की ओर मुड़ा। मैंने सोचा- 'मुझे क्या हो गया? मैंने क्या कह दिया ? हुआ सो हुआ, मैंने अपने परम श्रद्धेय हृदय देवता पूज्य कालूगणी के सम्बन्ध में ऐसे शब्दों का प्रयोग क्यों किया ? मैंने उनकी जो आशातना की है, उसका प्रायश्चित्त क्या होगा ? मैंने गुरुदेव के प्रति जो शब्द कहे, वे हृदय में तीर की तरह लगने लगे। वे तो महामंत्री थे, जो मुझे अपने प्रमाद का अहसास करा दिया। दूसरा कोई होता तो मुझे कह ही नहीं पाता। मैंने मन ही मन गुरुदेव से क्षमायाचना कर अपने मन को हल्का किया।' इसी संदर्भ में आत्मालोचन का निखालिस रूप प्रकट करने वाली एक और घटना का उल्लेख भी अप्रासंगिक नहीं होगा । सन् १९६१ बीदासर का प्रसंग है। पूज्य गुरुदेव ने मुनिश्री जंवरीमलजी को रात्रिकालीन प्रवचन में रामचरित मानस का वाचन करने का निर्देश दिया। गुरुदेव को उनके वाचन का क्रम पूरा ठीक नहीं लगा। पूज्य गुरुदेव ने फरमाया'साधु रामचरित का वाचन करते हैं किन्तु उनका तरीका मेरे जैसा नहीं है। मैं रामचरित का वाचन करूं तो लोगों को ज्ञात हो कि व्याख्यान की शैली कैसी होनी चाहिए ?' पूज्य गुरुदेव ने २२वीं ढाल से रामचरित का वाचन प्रारम्भ किया। प्रथम दिन ही तेजस्वर में गाने से उनका गला बैठ गया । सिर भारी हो गया और व्याख्यान में व्यवधान उपस्थित हो गया। उस समय किया गया आत्मनिरीक्षण एवं अतिक्रमण का प्रतिक्रमण 'संस्मरणों के
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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