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अध्यात्म के प्रयोक्ता
वातायन' में पठनीय है। 'मेरी आलोचना के स्वर थे- 'मैं व्याख्यान कैसा भी देता हूं, उसका अहं मुझे क्यों सताए? कितनी बड़ी दुर्बलता है जीवन में? इससे छुटकारा कैसे होगा? संघ में मेरा पहला स्थान है। मेरी भी यह हालत है तो दूसरों का क्या कहना? छोटी-सी उपलब्धि का इतना अहं! श्रोता व्याख्यान सुनकर उत्साह दिखाते हैं, प्रसन्नता व्यक्त करते हैं, यह उनका काम है। मैं अहंकार करूंगा तो औरों को क्या प्रेरणा दूंगा? आत्मालोचन के दर्पण में मैंने अपने आपको देखा और परखा ही नहीं, भीतर ही भीतर सिर उठा रहे अहंकार को खदेड़ने का प्रयास भी किया। वह दिन धन्य होगा, जब चेतना सर्वथा अहंकार-मुक्त बनेगी।'
प्रशंसा एवं सम्मान में सामान्य व्यक्ति स्वयं को भूल जाता है और दूसरों द्वारा की गई प्रशस्ति को यथार्थ मानकर उसमें बह जाता है पर गुरुदेव श्रद्धालुओं द्वारा की गई प्रशंसा को आत्मचिंतन के साथ जोड़कर उससे एक नई प्रेरणा एवं शिक्षा ग्रहण कर लेते थे। विशिष्ट अवसरों पर होने वाली प्रशस्तियों के प्रवाह को वे अपने आत्म-कल्याण एवं विकास का हेतु बना लेते थे।
१९वां पट्टोत्सव मनाया जा रहा था। श्रद्धालुओं की एक लम्बी पंक्ति ने अपनी अभ्यर्थना एवं श्रद्धा श्रीचरणों में व्यक्त की। उस समय की मनःस्थिति को प्रवचन के माध्यम से व्यक्त करते हुए पूज्य गुरुदेव ने कहा- 'आज १९वां पट्टोत्सव है।....मैं प्रशस्तियों के भार से दबा जा रहा था। मैं अपने आपको खोजने लगा कि मैंने कहां तक प्रगति की है? साधनापथ पर कितना आगे बढ़ा हूं? नाम और प्रतिष्ठा की भूख तो कहीं मुझे नहीं सता रही है? मौलिक आचार में कहीं शैथिल्य तो नहीं है? कल्याण या जनकल्याण में कहीं स्वकल्याण ओझल तो नहीं हो रहा है? मेरा जीवन व्यक्तिगत जीवन नहीं है, समूह का जीवन है। मेरा जीवन स्वस्थ है तो संघ का जीवन स्वस्थ है। संघ का जीवन स्वस्थ है तो मेरा जीवन स्वस्थ है। मेरे जीवन की पवित्रता का असर समूचे संघ पर हुए बिना नहीं रह सकता। आज आत्मनिरीक्षण का दिन है अत: आज मुझे अपना आत्मनिरीक्षण बहुत गहराई से करना चाहिए।'
इसी क्रम में धवल समारोह के अवसर पर किया गया उनका