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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
१०८ आत्मविश्लेषण हर साधक को नई ऊर्जा देने वाला है- 'प्रशस्तियों को सुनकर मैं अपना लेखा-जोखा कर रहा था। मैं कहां-कहां स्खलित हुआ, कर्तव्य कितनी दूर तक निभा पाया? इस अवधि में कितने भक्त-हृदयों की भावनाएं ठुकराईं।....यह प्रशंसा का समय मेरी परीक्षा का समय है। प्रशंसा में किंचित् भी उत्कर्ष साधक के लिए खतरा है। विरोध से प्रशंसा की पगडण्डी संकरी है। इसीलिए मैं अपनी समालोचना सुनना पसन्द करता हं, प्रशस्ति नहीं। मैंने यह भी स्पष्ट रूप से कह दिया है कि मेरे संबंध में जो साहित्य आदि लिखा जाए, वह समालोचनात्मक हो ताकि उससे मुझे कुछ प्रेरणा मिले और मैं अपने को देख सकं।'
आत्मचिंतन में यदि यथार्थ का अंकन नहीं होता है तो वह केवल औपचारिक बनकर रह जाता है। गुरुदेव जब आत्मनिरीक्षण या संघप्रतिलेखन करते तो केवल कमियों को ही नहीं देखते, विशेषताओं का भी अंकन करते क्योंकि वे जानते थे कि केवल कमियों को देखने से हीनता की ग्रंथि पनप सकती है। केवल विशेषताओं के दर्शन से अहं की भावना प्रबल हो सकती है अत: गुरुदेव संघ के साथ-साथ स्वयं का सही-सही मूल्यांकन समय-समय पर प्रस्तुत करते रहते थे। इसी कारण उनमें अल्पताओं को परिष्कृत करने एवं विशेषताओं को उजागर करने की अद्भुत क्षमता प्राप्त हो गई थी। आत्मनिरीक्षण से उन्हें वह सूक्ष्म दृष्टि प्राप्त हो गई, जिससे वे बुराई को निर्मूल करने के उपाय खोजते रहते थे। यही एक मात्र हेतु था कि उन्होंने विकास के कई कीर्तिमान स्थापित किए। जब वे अपने संघ की या किसी साधु-साध्वी की विशेषता का अंकन करते तो सबके भीतर आत्म-गौरव की भावना जाग उठती थी।
हर जन्मदिन एवं पट्टोत्सव पर उनके आत्मचिंतन एवं संकल्प का क्रम विशेष रूप से चलता था, जिससे भविष्य में साधना में गति एवं तेजस्विता आ सके। ४७वें वर्ष के प्रवेश में दिन भर अभ्यर्थनाओं का क्रम चला। प्रहर रात आने के बाद साधु गुरुदेव के सोने की प्रतीक्षा करने लगे। अपने निमित्त साधुओं को जगाने से होने वाले कष्ट की कल्पना से वे एक बार सो गए। सवेरे तीन बजे गुरुदेव पट्ट पर विराजे हुए आत्म-मंथन एवं आत्म-विश्लेषण करने लगे। संतों ने पूछा- 'आप कब जाग गए?'