________________
साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
१७२
'ही बैठे थे अतः उनके आक्रोश भरे शब्द उनके कानों में पड़ रहे थे। | गुरुदेव शाम के समय सबको प्रतिबोध देते हुए कहा- 'परदोष दर्शन कितना सहज होता है और आत्मदोषदर्शन कितना कठिन - यह इस पेड़ी की बात
सिद्ध कर दिया है। हर कोई चोट खाने वाला पेड़ी को दोष देता है जबकि वस्तुतः दोष अपनी असावधानी का है। पेड़ी की बनावट में कुछ कमी हो सकती है फिर भी कुछ दोष अपनी ईर्यासमिति के प्रमाद का भी है।'
अनुशास्ता होने के कारण दूसरों की गलती या दोष पर उनका सहज ध्यान जाता था पर उसके पीछे उनका एकमात्र लक्ष्य यही था कि उस व्यक्ति का सुधार हो, वह अपने जीवन को बदले । उनकी दृष्टि में दूसरों को गलती या त्रुटि बताने का अधिकार उसी को है जो स्वयं अपने दोष देखता हो, दूसरों से दोष सुनने की क्षमता रखता हो अथवा उस दोष से मुक्त हो । पूज्य गुरुदेव स्वयं की समालोचना सुनने में अत्यंत सजग एवं जागरूक थे। विरोधी बात में भी यदि उन्हें सारपूर्ण बात प्रतीत होती तो उसे तत्काल ग्रहण कर लेते थे । उनका यह आत्मनिवेदन आत्मलक्षी वृत्ति का स्पष्ट निदर्शन है—
"मैं दूसरों के प्रमाद को ही नहीं देखता, अपना भी प्रतिलेखन करता हूं। कब अहंकार आया ? कब गुस्से से आविष्ट हुआ ? कब इच्छाओं का दास बना ? इन सबका लेखा-जोखा मैं बराबर करता रहता हूं।".....' मैं अपने हृदय की बात कहता हूं कि कभी-कभी लम्बे समय तक कहीं आलोचना नहीं सुनता हूं तो लगता है क्या बात है, मैं कहीं गलती पर तो नहीं चला जा रहा हूं। फिर जब कहीं से थोड़ी आलोचना आ जाती है तो अपना आत्मालोचन करने का अवसर मिल जाता है और तब सोचता हूं, नहीं मैं विपथ पर तो नहीं हूं।'
प्रवचन के माध्यम से आत्मदर्शन का सक्रिय प्रशिक्षण देते हुए पूज्य गुरुदेव कहते थे- "यदि तुम्हारे मुखद्वार की सीढ़ियां मैली हैं तो पड़ोसी के छत पर पड़ी गंदगी की शिकायत करना व्यर्थ है अत: पहले तुम स्वयं सुधरो, स्वयं की गंदगी हटाओ, साफ-सुथरा रहना सीखो फिर दूसरों को सफाई का उपदेश दो।" आत्मबोध होने के बाद भीतरी जागरण घटित
जाता है। व्यक्ति अपने करणीय के प्रति सजग हो जाता है। पूज्य गुरुदेव