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साधना की निष्पत्तियां
के जागृत आत्मबोध ने विकास की नयी संभावनाओं के द्वार उद्घाटित किए तथा अनेक लोगों को आत्मस्थता की दिशा में प्रस्थित किया। सम्यग्दर्शन
भगवान् महावीर ने धार्मिक की प्रथम पहचान बताई है- सम्यग् दृष्टिकोण। उन्होंने कहा- सम्यग दृष्टिकोण सब धर्मों का मूल है और मिथ्या दृष्टिकोण सब पापों का मूल है। आचार्य महाप्रज्ञजी की दृष्टि में सम्यग्दर्शन का अर्थ है-निरंतर आत्मा में रहना, आत्मा में समाधान पाना। जब तक दृष्टि सम्यक् नहीं होती, सत्य के प्रति दृष्टि संदिग्ध बनी रहती है तथा आचरण और व्यवहार सम्यक् नहीं हो सकता। दृष्टि विशुद्ध होने के बाद साधक न कहीं उलझता है और न ही अटकता है। पूज्य गुरुदेव के शब्दों में सम्यग्दृष्टि की कसौटी व्यक्ति स्वयं है, दूसरा नहीं। वे कहते थे- "हीरे की पहचान जौहरी करता है, सोने की पहचान स्वर्णकार करता है पर मैं सम्यग्दृष्टि हूं या नहीं, इसकी पहचान दूसरे से नहीं, अंतरात्मा से ही होगी। बुराइयों से निवृत्त होते समय आपकी आत्मा उसका अनुमोदन करे और बुराइयों में प्रवृत्त होते समय आपके दिल में चुभन पैदा हो तो आप निश्चित ही अपने आपको सम्यग्दृष्टि समझिए।'
- पूज्य गुरुदेव ने दृष्टिकोण के परिमार्जन पर अत्यधिक बल दिया। उनका सोचना था कि दृष्टिकोण सही है तो व्यक्ति कितनी ही बड़ी बुराई से क्यों न लिप्त हो, एक दिन उससे अवश्य मुक्त हो जाएगा। किन्तु जो बुरा करके उसे अच्छा बताता है, वह बुराई से कैसे मुक्त होगा? दृष्टिकोण की स्पष्टता के बिना व्यक्ति को अपनी बड़ी से बड़ी गलती छोटी दिखाई देती है और दूसरों का साधारण सा दोष भी पहाड़ जितना लगता है। जब तक सही दृष्टिकोण का निर्माण नहीं होता, चेतना की पवित्रता का लक्ष्य नहीं बन सकता तथा सम्यक्-असम्यक् की सही समीक्षा नहीं हो सकती। दृष्टि स्पष्ट होते ही अहंकार उल्टे कदमों भाग खड़ा होता है। पूज्य गुरुदेव का दृष्टिकोण स्फटिक की भांति निर्मल और पारदर्शी था, इसलिए स्वयं की हर अल्पता तत्काल उनके दृष्टिपथ पर प्रतिबिम्बित हो जाती थी। उनका मानस इस बात के गणित में नहीं उलझता था कि दूसरे उस गलती में कितने प्रतिशत संभागी थे।