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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
१७४ ___ भयंकर गर्मी का समय था। सरदारशहर में गुरुदेव दरवाजे के बीच विराज रहे थे। कुछ कबूतर बार-बार उड़-उड़कर बाहर से अंदर तथा अंदर से बाहर आ रहे थे। गुरुदेव को बार-बार अपना सिर नीचे करना पड़ रहा था। संतों ने गुरुदेव को निवेदन किया कि आपको बार-बार असुविधा हो रही है अत: किसी दूसरे सुविधाजनक स्थान पर विराज जाएं। गुरुदेव ने मुस्कराते हुए फरमाया- "इसमें असुविधा की क्या बात है? कबूतर के बार-बार आने-जाने से स्वाभाविक हवा आ.जाती है। इनकी हवा स्वास्थ्यप्रद होती है। हम असुविधा को क्यों देखें? हमें तो हर चीज में से गुण लेने चाहिए।".
जयपुर का प्रसंग है। पंचमी समिति जाते समय पूज्य गुरुदेव का आचार्य गणेशीलालजी से मिलन हुआ। संवत्सरी के दूसरे दिन खमतखामणा का अवसर था। संवत् २००५ तक गुरुदेव प्रायः राजस्थानी भाषा में ही बोलते थे। राजस्थानी भाषा में 'आपके' स्थान पर "थे" प्रयुक्त किया जाता है। गुरुदेव ने सहजता से गणेशीलालजी के लिए 'आप' के स्थान पर 'थे' का प्रयोग कर दिया। उन्होंने इसे मान-हानि समझकर विवाद का मुद्दा बना लिया। गणेशीलालजी उत्तेजित होकर बोले- 'तुम लोगों को बोलने की सभ्यता नहीं है। अपने को बड़ा समझते हो, दूसरों को नहीं।' गुरुदेव ने विनम्रता से समझाने का प्रयत्न किया कि उनका लक्ष्य किसी को अपमानित करना नहीं था। राजस्थानी भाषा में सहज रूप से ऐसा प्रयोग होता है। बहुत कहने पर भी उनकी मानसिकता नहीं बदली, समन्वय की बात केवल मुख पर ही रही, क्रियात्मक नहीं बनी। वे एक शब्द में उलझ गए और पूरे चातुर्मास में विरोध चलता रहा। "संस्मरणों के वातायन" में गुरुदेव इस घटना-प्रसंग के संदर्भ में अपनी अनुभूति व्यक्त करते हुए कहते हैं- "उस दिन हमको एक बोधपाठ मिला और उसके साथ कुछ आश्चर्य भी हुआ। हमारे द्वारा सहजभाव से आत्मीयतापूर्ण वातावरण में प्रयुक्त एक शब्द पर इतनी आपत्ति की गयी और सामने वाले पक्ष की ओर से वातावरण में उत्तेजना भरने की बात को भी अनुचित नहीं माना गया। खैर! हम संभल गए। हमने तय कर लिया कि भाषा का प्रयोग भी बहुत सोच-समझकर करना चाहिए।"