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________________ १७५ साधना की निष्पत्तियां सम्यग्दृष्टि मनुष्य शरीर चलाने के लिए पदार्थ का उपयोग करता है पर भोग नहीं करता। वह जानता है कि संसार में रहते हुए कामनाओं का अंत पाना कठिन है पर कामनाएं चेतना पर हावी हो जाएं, यह उसे काम्य नहीं होता। मिथ्यादृष्टिकोण वाला व्यक्ति उसी पदार्थ का भोग आंतरिक आसक्ति के साथ करता है अत: वह उसमें बंध जाता है। क्रिया एक होने पर भी दृष्टिकोण के अंतर से उसकी परिणति में बहुत बड़ा अन्तर आ जाता है। इस अंतर का कारण है कि मिथ्यात्वी पदार्थ के साथ एकाकार हो जाता है। जबकि सम्यक्त्वी चैतन्य के सिवाय किसी के साथ नहीं बंधता। इसी बात को पूज्य गुरुदेव उदाहरण द्वारा समझाते हुए कहते हैं- "मनुष्य जिस आंख से अपनी पत्नी को देखता है उसी आंख से पुत्री को देखता है पर देखने-देखने में बहुत बड़ा अंतर रहता है। बिल्ली अपने बच्चों को जिस आंख से देखती है, उसी आंख से चूहों को देखती है। बच्चों के प्रति उसके मन में सहज प्यार उमड़ता है, पर चूहों को देखते ही उसकी मुद्रा आक्रामक हो जाती है, यह दृष्टि का ही अन्तर है। पदार्थ के भोग की भी पृथक्-पृथक् दृष्टियां होती हैं।" अध्यात्म-पदावली में दृष्टिकोण के भेद में रहे तत्त्वों की सुंदर प्रस्तुति हुई है दृष्टि विपर्यय है सही, ममता का परिणाम। ... आत्मा की अनुभूति में, आत्मोदय अभिराम॥ दृष्टि विशुद्ध होते ही व्यक्ति का मन अपने आप सधने लगता है। कोई भी विक्षेप उसके मानस को चंचल, विक्षिप्त या तनावयुक्त नहीं कर सकता। पूज्य गुरुदेव का मानना था कि दृष्टिकोण की स्पष्टता किसी भी कार्य की सफलता का वह बिन्दु है, जिसे नजरंदाज कर कोई भी व्यक्ति आगे नहीं बढ़ सकता और न ही जीवन-व्यवहार को सम्यक् बना सकता है। दृष्टिकोण की विशुद्धता व्यक्ति के चिंतन को सम्यग् बना देती है। बंगाल के नियामतपुर गांव में गुरुदेव विराज रहे थे। उनका रात्रिकालीन प्रवास जी.टी.रोड पर स्थित एक मकान में था। प्रवचन प्रारम्भ हुआ पर मोटर-गाड़ियों के आवागमन से प्रवचन में बाधा पड़ रही थी। गुरुदेव को प्रवचन करते हुए बार-बार रुकना पड़ रहा था। श्रोताओं को
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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