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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
१७६ झंझलाहट आ रही थी। उनके अंतर का आवेश बार-बार उनके चेहरों पर अंकित हो रहा था। किसी का आवेश तो वाणी में भी प्रकट हो गया। उस परिस्थिति में परिषद् की दृष्टि का परिमार्जन करते हुए गुरुदेव ने फरमाया'यह अच्छा ही तो हो रहा है। यदि मोटर न आए तो वक्ता को विश्राम कैसे मिले? धाराप्रवाह अस्खलित प्रवचन करने वाले प्रवचनकार के मुख से नि:सृत एक वाक्य ने लोगों के दिल को प्रकाश से भर दिया। महापुरुषों की सम्यग्दृष्टि हर प्रतिकूल परिस्थिति को अनुकूलता में ढाल देती है। सम्यग्दृष्टि व्यक्ति न किसी की बुराई सुनता है और न ही किसी पर दोषारोपण करता है।
गुरुदेव के मुखारविंद से प्रवचनों के दौरान अनेक बार यह सुना जाता था कि समस्या की मूल जड़ है मनुष्य का एकांगी या गलत दृष्टिकोण। दृष्टिकोण एकांगी होगा तो वह कभी सुख और शांति को उपलब्ध नहीं कर सकता। दृष्टिकोण सम्यक् हो जाए तो भौतिक सामग्री के अभाव में भी हर क्षण आनंद की अनुभूति की जा सकती है। यदि दृष्टिकोण का विपर्यास है तो तीन सौ चौंसठ दिन सुखी रहने पर भी एक दिन भी दुःख आ गया तो व्यक्ति तीन सौ चौंसठ दिन के सुख को भूल जाता है।
सन् १९६५ का घटना प्रसंग है। गुरुदेव का प्रवास लाडनूं के मूल ठिकाणे (सेवाकेन्द्र) में था। पंडाल में किसी कारण से आग लग गई। आग लगने से लोग चिंतित हो गए। गुरुदेव ने उनके मानस को समाहित करते हुए कहा- 'देव, गुरु और धर्म के पुण्य प्रभाव से बहुत बचाव हुआ है। यदि मैं दस मिनिट पहले पंडाल पहुंच जाता उस समय हजारों भाईबहिन एकत्रित हो जाते। अथवा रात्रि के व्याख्यान का समय होता, जबकि चार-पांच हजार व्यक्तियों की उपस्थिति रहती उस समय क्या होता? इसलिए चिन्तित या दुःखी होने की अपेक्षा नहीं है। जो हुआ उसे अच्छे रूप में स्वीकार करना चाहिए।'
पूज्य गुरुदेव का प्रबल आत्मविश्वास था कि धरती डोल सकती है, पहाड़ डोल सकता है पर दृष्टिकोण सम्यक् होने के बाद व्यक्ति का मन किसी भी स्थिति में विचलित नहीं हो सकता। वह अंधकार को उजालों में बदल देता है। दृष्टिकोण सही न होने पर निराशा और असफलता पग-पग पर व्यक्ति को दु:खी और संत्रस्त करती रहती है।