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________________ १७७ साधना की निष्पत्तियां निष्काम कर्म "महत्त्वाकांक्षा अच्छी भी है और बुरी भी। जब तक वह विवेक के वलय से संवेष्टित है, उससे विकास के द्वार खुलते रहते हैं। शक्तियां जागृत होती हैं। लेकिन जहां विवेक लुप्त हो जाता है, वहां महत्त्वाकांक्षा व्यक्ति को पतन के गर्त में गिरा देती है, अवनति की ओर ले जाती है।" पूज्य गुरुदेव के मुख से निःसृत ये पंक्तियां उनके निस्पृह एवं निस्संग व्यक्तित्व की झलक प्रस्तुत करती हैं। गुरुदेव साधक ही नहीं, साधकों के अनुशास्ता थे पर वे अपनी साधना को प्रसिद्धि, वाहवाही, चमत्कार एवं ख्याति के साथ नहीं जोड़ना चाहते थे। साधना स्वान्तः सुखाय एवं आत्मोन्नति के लिए होती है। दिखावा, प्रतिष्ठा या प्रदर्शन की भावना से उसमें स्थायित्व एवं आनन्द नहीं रहता अत: उसका स्रोत अंतरात्मा की ओर प्रवाहित होना चाहिए। उनका मानना था कि अंदर रही हई साधना जितना फल देती है, उतना वह बाहर आकर नहीं दे सकती। उससे कुछ न कुछ प्रतिष्ठा की भावना आ ही जाती है और अधिक लोगों में प्रकट होकर साधना स्वयं भार भी बन जाती है।' - पूज्य गुरुदेव अपने धर्मसंघ को नाम और ख्याति से दूर साधना के शिखर पर देखना चाहते थे। समय-समय पर उनका आत्ममंथन इस विषय में नयी प्रेरणा ग्रहण करता रहता था। पूज्य गुरुदेव ने तीर्थंकर के सम्पादक डॉ. नेमीचंदजी जैन का एक लेख 'साधु : उपदेश अधिक साधना कम' पढ़ा। लेख पढ़कर उनके साधक मानस पर जो प्रतिक्रिया हुई, वह उन्हीं के शब्दों में पठनीय है- "लेख कड़ा है पर चिन्तनीय जरूर है। मेरे मन में बार-बार यह विचार आता है कि धर्मसंघों में यश, ख्याति आदि.की लालसा बढ़ रही है, यह एक विचारणीय विषय है। हमारे संघ में इस प्रवृत्ति से बचाव अत्यन्त अपेक्षित है। कुछ युगीन कठिनाइयां जरूर हैं पर साध्वाचार की शिथिलता तो अहितकारी ही होती है। हमें भी इस विषय । पर चिन्तन अवश्य करना चाहिए। हमारा संघ संगठित और व्यवस्थित है। इसलिए वह अनेक अवांछनीय स्थितियों से अवश्य ही बचा हुआ है और बचा रहेगा। यद्यपि युग की कुछ अवश्यंभावी कठिनाइयों के कारण प्रवाहपातिता से बचना बहुत मुश्किल है पर इस दिशा में सतत जागरूकता तो रखनी ही चाहिए रखनी ही होगी।"
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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