________________
१७१ .
साधना की निष्पत्तियां
संसार की भौतिक शक्तियां एवं वैभव उनके चरणों में प्रणत थे पर वे सब आकर्षणों से निर्लिप्त सतत अपनी साधना में लीन रहते थे। उनकी दृष्टि में आत्म-शक्ति की तुलना में संसार की सारी शक्तियां बौनी थीं। इस संदर्भ में उनका अनुभवपूत वक्तव्य पठनीय है- "विद्या, कला, तंत्र और दैवी शक्ति आत्मशक्ति की तुलना में अकिंचित्कर है, इसलिए हर साधक के मन में यह भरोसा होना चाहिए कि इच्छाओं से भी अनंतगुणित शक्ति उसकी आत्मा में है। आत्मशक्ति का बोध होने के बाद संसार का कोई कार्य असंभव नहीं रहता।" गुरुदेव ने अपनी आत्मशक्ति का भरपूर उपयोग किया इसीलिए वे नेपोलियन की भाषा में कहते हैं- 'दुनिया में असम्भव जैसा कोई कार्य है ही नहीं, यदि सही रूप में शक्ति का नियोजन किया जाए।' काव्य की इन पंक्तियों के द्वारा उन्होंने जन-जन की सोयी आत्मशक्ति को जगाने का प्रयत्न किया
तोड़ अब इन बन्धनों को स्वयं को तू स्वयं पा, सुप्त अपनी चेतना को स्वयं के द्वारा जगा बना केन्द्रित शक्तियों को प्राप्त कर अपनी प्रभा, स्वच्छ अभ्र-विमुक्त नभ में चन्द्र-ज्योतिस्सन्निभा॥
सामान्य व्यक्ति दूसरों के प्रति अधिक जागरूक रहता है। दूसरा क्या करता है, इसे देखने में ही जीवन के बहुमूल्य क्षणों को व्यतीत कर देता है। पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी दूसरों के साथ स्वयं के प्रति भी जागरूक थे। दूसरों के प्रति जागरूक रहने के दायित्व को भी वे बखूबी निभाते थे पर उनकी अपने प्रति जागरूकता और आत्मनिष्ठा उल्लेखनीय थी। __सामान्यत: व्यक्ति दूसरों की गलती देखने में जितना सचेत होता है, उतनी सतर्कता अपनी त्रुटियों एवं गलतियों को देखने में नहीं होती। पूज्य गुरुदेव कहते थे कि स्वयं का सबल पक्ष और दूसरों का दुर्बलपक्ष तो कोई भी व्यक्ति सहजतया जान जाता है पर अपना दुर्बल पक्ष एवं संसार का सबलपक्ष जानना कठिन है।" सुदूर यात्रा-प्रवास का घटना प्रसंग हैपूज्य गुरुदेव जिस मकान में विराज रहे थे उसकी पेड़ियां बहुत खराब थीं। असावधानी के कारण उस दिन अनेक लोगों को चोट आयी। चोट खाए हर व्यक्ति ने उस पेड़ी को तथा उसके निर्माता को कोसा । गुरुदेव पेड़ी के पास