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________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २५६ नहीं पाता। किन्तु गुरुदेव ने उस विपुल वात्सल्य को न केवल पचाया बल्कि अपनी विनम्रता से गुरु के दिल में प्रारम्भ से ही एक विशेष स्थान बना लिया। यह आत्माभिव्यक्ति इसका स्वयंभू प्रमाण है- 'गुरुदेव की कृपा का मैंने कभी दुरुपयोग नहीं किया। प्रारम्भ से ही मैंने आपकी चाह को अपनी चाह बनाने का लक्ष्य रखा। मुझे याद नहीं, अध्ययन के लिए आपसे बार-बार कहलवाया हो। एक बार जो निर्देश मिलता, मैं उसके प्रति सजग रहता।' थोड़ा सा ज्ञान कर लेने पर भी व्यक्ति स्वयं को पंडित मानने लगता है। किन्तु मौलिक विचारों से परिपूर्ण सैकड़ों ग्रंथ प्रकाशित होने के बाद भी गुरुदेव कहते थे- 'मैंने कुछ नया कहा ही नहीं। संसार में कुछ नया है ही नहीं। मैं तो प्राचीन ऋषि-मुनियों की बात को ही नयी पद्धति से कहने का प्रयास करता हूं।' धवल समारोह पर व्यक्त किया गया उनका संकल्प विनम्रता का साकार रूप कहा जा सकता है- 'प्राप्त पूजा में और अधिक विनम्र बन, साधना के पथ पर और आगे बढ़े, लोक-कल्याण में और अधिक निमित्त बनूं, यही संकल्प मेरे अग्रिम जीवन के प्रकाश-दीप होंगे।' - सामान्यत: व्यक्ति अपनी किसी भी रचना या कार्य में दूसरे का हस्तक्षेप पसन्द नहीं करता। वह सोचता है कि मैंने लिखा, वही सही है लेकिन पूज्य गुरुदेव का दृष्टिकोण इससे सर्वथा भिन्न था। वे जब किसी काव्य की रचना करते तो सभी प्रबुद्ध संत-सतियों को आमंत्रित करके सुझाव मांगते थे। अपनी नयी कृति 'श्रावक संबोध' की सम्पन्नता पर लाडनूं में उन्होंने साधु-संतों की संगोष्ठी बुलाकर कहा- 'मैंने लिख दिया वह ठीक है, ऐसा नहीं मानना चाहिए। आप लोगों का कोई भी सुझाव हो तो अभी भी परिष्कार किया जा सकता है, नया जोड़ा जा सकता है और कांट-छांट की जा सकती है, मेरी इस रचना को सब व्याख्यान की दृष्टि से नहीं, आलोचना की दृष्टि से सुनें और मुक्तभाव से सुझाव दें। सुझाव देने में हर कोई स्वतंत्र है।' संघ के सर्वोच्च आसन पर आसीन नेता के मुख से निकलने वाले ये उद्गार निश्चित रूप से उनकी निरहंकारी चेतना के स्पष्ट निदर्शन हैं। काव्य की इन पंक्तियों में भी ज्ञान के साथ आने वाले अहंकार पर प्रहार करते हुए उन्होंने कहा
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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