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________________ २५५ साधना की निष्पत्तियां किया- 'आचार्य तुलसी की निश्छलता और सरलता के सन्मुख मैंने स्वयं को शिशु रूप में पाया। लगा कि उनकी पैनी दृष्टि हम लोगों के अन्तस्तल को भेदकर हमारी कुटिलता और कलुषता को प्रक्षालित कर रही है । ' विशाल धर्मसंघ का एकछत्र नेतृत्व करते हुए भी पूज्य गुरुदेव ने बचपन जैसी सरलता और निश्छलता को सुरक्षित रखा, यह उनकी विशिष्ट साधना का परिणाम था । विनम्रता 'प्रकृति से मैंने विनम्रता का गुण सीखा है और अपने व्यक्तिगत जीवन में उतारकर देखा है कि जो झुकना जानता है, उसे कोई तोड़ नहीं सकता। विकास के सारे दरवाजे उसके लिए खुल जाते हैं।' पूज्य गुरुदेव का यह वक्तव्य उनके विनम्र व्यक्तित्व की स्पष्ट अभिव्यक्ति है- 'अहंकार के नाग को वश में किए बिना साधक साधना के क्षेत्र में प्रगति नहीं कर • सकता तथा उसके आत्मबोध की दिशाएं प्रशस्त नहीं हो सकतीं।' महात्मा बुद्ध से पूछा गया कि ध्यान किसे कहते हैं ? बुद्ध ने उत्तर दिया- विनम्रता । विनय को परिभाषित करते हुए पूज्य गुरुदेव कहते थे कि कृत्रिमता, चापलूसी, पराधीनता आदि की प्रेरणा से मुक्त, अहं मुक्ति से निष्पन्न, आंतरिक ऋजुता और व्यावहारिक मधुरता को मैं विनय कहता हूँ । पूज्य गुरुदेव अहंकार को प्रगति का सबसे बड़ा बाधक तत्त्व मानते थे । उनकी दृष्टि में जो साधक विनम्र नहीं, उसके लिए सत्य के दरवाजे नहीं खुल सकते। इसलिए सत्यशोधक सहज विनम्र और ग्रहणशील बन जाता है। विनम्र एवं सत्यशोधक दृष्टि का ही परिणाम था कि किसी भी परिस्थिति में अहं उन पर हावी नहीं हो पाता था । हर प्रतिकूलता में भी उनको अनुकूलता नजर आती थी। वे वर्षों से श्वास की बीमारी से आक्रांत थे पर इसके प्रति भी उनका कितना विनम्र दृष्टिकोण था - 'श्वास की बीमारी को मैं अपना मित्र मानता हूँ। यह मुझे बार-बार चेतावनी देती है कि मैं अहंकार न करूं कि मैं स्वस्थ हूँ। मैं भी अस्वस्थ होता हूँ । ' पूज्य गुरुदेव ने अपने गुरु कालूगणी का असीम वात्सल्य पाया। उस वात्सल्य को उन्होंने अपने विकास का माध्यम बनाया न कि अहंकारवृद्धि का । बड़ों की जरा सी कृपा-दृष्टि प्राप्त करके व्यक्ति उसको पचा
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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