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अध्यात्म के प्रयोक्ता
पूज्य गुरुदेव का एक अन्न से अधिक अन्न न खाने का संकल्प भी अनेक महीनों तक चला। प्रायोगिक रूप से एक अन्न खाने का संकल्प इतना सरल नहीं है पर गुरुदेव के अटल मनोबल के सम्मुख सभी संकल्प सहज एवं सरल हो जाते थे।
सन् १९६१ बीदासर चातुर्मास में किए गए खाद्य-संयम के प्रयोग उन्हीं की भाषा में पठनीय हैं
* 'बीदासर पहुंचने से पहले ही मैंने खाद्य-संयम के कुछ प्रयोग करने की बात सोची थी। पहला प्रयोग श्रावण कृष्णा एकम को किया। उपवास के पारणे में पहले पानी में नींबू का रस लिया, फिर थोड़ासा दूध लिया। उस दिन अन्न, मिठाई आदि का सेवन नहीं किया। दिन में भी दूध, फल आदि हल्का आहार लिया। पेट ठीक रहा। तन्द्रा में कमी रही। रात्रि में दस बजे से साढ़े तीन बजे तक एक ही नींद आई। अन्नपरिहार का प्रयोग तीन दिन तक किया। किसी प्रकार की कोई कठिनाई का अनुभव नहीं हुआ। चित्त प्रसन्न रहा। अन्न के प्रति कोई आकर्षण पैदा नहीं हुआ। मुझे विश्वास हो गया कि इस रूप में पन्द्रह दिन प्रयोग किया जाए तो भी कोई असुविधा नहीं होगी। फिर भी प्रथम प्रयोग तीन दिन का ही किया। समय-समय पर कुछ और प्रयोग करने का मानस बना।' __ * 'दो दिन बाद खाद्य-संयम की दृष्टि से भोजन में एक अन्न लिया। केवल गेहूं की रोटी ली। बाजरी, मोठ, मूंग, दाल, चावल आदि कुछ नहीं लिया। निराहार रहने में जितनी प्रसन्नता हुई, उतनी इस प्रयोग में नहीं हुई। मैं अन्न छोड़ना चाहता था पर वातावरण अनुकूल नहीं था। मैंने जब भी इस विषय में चर्चा की, एक ही तर्क दिया गया कि अन्न नहीं लेने से कमजोरी बढ़ेगी। मातुश्री की भी सहमति नहीं थी। एक अन्न वाला प्रयोग कुछ दिन किया, पर किसी को ज्ञात नहीं होने दिया। ज्ञात हो जाता तो उसे चलाना भी कठिन था। मुझे ऐसा लगा कि छोटे-से संकल्प को निभाने में भी कई दिक्कतें आ जाती हैं।'
* अष्टमी के दिन एकाशन किया। एकाशन में एक समय भोजन करना होता है। उसमें अधिक खा लिया जाए तो एकाशन भी व्यशन बन जाता है। मैं अधिक खाना नहीं चाहता था पर आग्रह से कुछ