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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
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तीन पाव दूध तथा दो या तीन केले। तत्कालीन खाद्य-संयम का अनुभव उनकी भाषा में ही पठनीय है-'प्रारम्भ में मुझे संदेह था कि मैं अन्न के बिना केवल दूध पर रह सकूँगा या नहीं किन्तु अन्न छोड़ने की कोई अन्यथा प्रतिक्रिया नहीं हुई। मैं अपने आपको पहले की अपेक्षा अधिक स्वस्थ और स्फूर्तिमान् अनुभव कर रहा हूं। शरीर थोड़ा कृश लगता है किन्तु शक्तियां बढ़ रही हैं और वजन बिल्कुल कम नहीं हुआ है। शौचक्रिया, निद्रा और प्रसन्नता में कोई अन्तर नहीं आया है। मुझे कुछ भी अन्यथा प्रतीत नहीं हो रहा है और न भोजन में किसी अन्य पदार्थ की अपेक्षा प्रतीत होती है।'
बचपन से ही पूज्य गुरुदेव की खाद्य-संयम की साधना शुरू हो गई थी।अपने पुराने अनुभवों को याद करते हुए दिल्ली के एक प्रवचन में गुरुदेव ने फरमाया-'बचपन में हमें दूध तो कभी-कभी ही मिला करता था। जब कभी उपवास का पारणा होता या और कोई विशेष बात होती तब ही हम दूध पीया करते थे। मैं तो समझा करता था कि दूध भी क्या कोई सदा पीने की चीज होती है? इसी प्रकार मिष्ठान्न भी हम कभी-कभी खाते थे। पर मेरे मन में इसकी अतृप्ति कभी नहीं रहती थी।'
बाल्यावस्था में दीक्षित होने पर भी खाने की किसी अच्छी चीज के प्रति उनका आकर्षण प्रकट नहीं हुआ। स्वल्पमात्रा में प्राप्त वस्तु को अपने पास अध्ययनरत साधुओं को खिलाकर ही गुरुदेव संतुष्टि एवं आनंद का अनुभव करते थे। उनके इस बड़प्पन एवं संयम ने उन्हें छोटी उम्र में ही प्रतिष्ठित कर दिया।
विधिवत् खाद्य-संयम का प्रयोग गुरुदेव ने सन् १९४४ में प्रारम्भ किया। प्रथम चरण में पूज्यपाद ने एक वर्ष के लिए उन चीजों का परिहार किया, जिनके प्रति बचपन में उनके मन में कुछ आकर्षण था, जैसेरामखिचड़ी, पापड़ आदि।
. स्वाद-विजय के लिए गुरुदेव ने कुछ समय के लिए मिर्च मसालों का परिहार किया। सामान्य व्यक्ति को नमक-मिर्च विहीन भोजन अरुचिकर या अमनोज्ञ लग सकता है किन्तु आत्मजयी साधक के लिए रसना का स्वाद उतना महत्त्वपूर्ण नहीं होता, जितना शरीर की पूर्ति के लिए भोजन करना।