SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधना का उद्देश्य तर्क से अभिप्रेरित होती है और हृदय अंत:स्फुरित होता है। केवल बुद्धिप्रधान हृदयशून्य साधक अन्त:स्फुरित नहीं हो सकता क्योंकि बुद्धि ज्ञान दे सकती है पर अंत:स्फुरणा हृदय से ही संभव है। अंतःस्फुरणा होते ही साधक समभाव में प्रतिष्ठित हो जाता है। फिर संसार की सारी अनुकूल-प्रतिकूल स्थितियाँ साधक के लिए दृश्य होती हैं। वह द्रष्टा होने के कारण उनका भोग या संवेदन नहीं करता। विवेकानंद कहते हैं "मैं साक्षी हूँ, इस भाव में जब तक तुम प्रतिष्ठित नहीं हो जाते, तब तक . प्राणायाम या योग की भौतिक क्रियाएँ आदि किसी काम की नहीं। यदि अत्याचारी तुम्हारी गर्दन पकड़ ले तो तुम कहो 'मैं आत्मा हूँ' कोई भी बाह्य वस्तु मुझे स्पर्श नहीं कर सकती। यदि मन में बुरे विचार उठे तो बार-बार यही दुहराओ कि मैं आत्मा हूँ। मैं साक्षी हूँ, मैं नित्य शुभ तथा सदा आनंदस्वरूप हूँ।" समस्त जड़ पदार्थों से मुक्त होकर आत्मा के द्वारा आत्मा का संस्पर्श यही साधना का सबसे बड़ा प्रयोजन है।"
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy