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. सार्वभौम अध्यात्म के प्रतिष्ठाता - अध्यात्म किसी भी समाज की अमूल्य धरोहर होती है। उसका मूल्य त्रैकालिक है। महात्मा गाँधी के शब्दों में अध्यात्म-बल एक शाश्वत बल है। वह हमेशा रहने वाला है क्योंकि वह सत्य है।' वैज्ञानिक प्रगति अध्यात्म के अभाव में विध्वंसक बन जाती है। किसी भी संस्कृति से यदि अध्यात्म को निकाल दिया जाए तो वह दरिद्र एवं मूल्यहीन बन जाती है। पूज्य गुरुदेव के शब्दों में-"आत्मनिष्ठ चैतन्य का जागरण अध्यात्म है। वह केवल मुक्ति का ही पथ नहीं, शांति का मार्ग है, जीवन जीने की कला है, जागरण की दिशा है और है रूपान्तरण की सजीव प्रक्रिया।" . गुरुदेव तुलसी ने धर्म और अध्यात्म को मंदिर और मस्जिद से निकालकर उसे जीवन-व्यवहार में प्रतिष्ठित करने का भगीरथ प्रयत्न किया। उनकी धर्मक्रान्ति ने अध्यात्म को व्यावहारिक बनाने का प्रयास किया। उनकी दृष्टि में जो धर्म जीवन-परिवर्तन की दिशा नहीं देता, मनुष्य के व्यवहार में जीवंत नहीं होता, वह धर्म नहीं, सम्प्रदाय है, क्रियाकाण्ड है, उपासना है। वे उन धार्मिकों को देखकर हैरान थे, जो पचास वर्ष से धर्म करते रहे किन्तु जीवन में परिवर्तन नहीं आया। उनकी दृष्टि में वही व्यक्ति अध्यात्म की कसौटी पर खरा उतरता है, जो अशांति में से शांति को, अपवित्रता में से पवित्रता को, असंतुलन में से संतुलन को तथा अंधकार में से प्रकाश को ढूंढ़ निकालता है। मध्यप्रदेश विधानसभा के सदस्य डॉ. खूबचन्द बघेल द्वारा लिखित पत्र की ये पंक्तियाँ पूज्य गुरुदेव के आध्यात्मिक व्यक्तित्व की साक्षात् प्रमाणपत्र हैं-'महात्मा गाँधी, अरविन्द घोष और महर्षि रमण के पश्चात् मैं आध्यात्मिक ऊँचाई प्राप्त श्रेष्ठ पुरुषों के दर्शन पाने के लिए लालायित था पर मुझे ऐसा लगता था कि शायद उनकी टक्कर का आदमी अब संसार में नहीं रहा। परन्तु गुरुदेव श्री तुलसी को देखने के बाद मुझे प्रतिक्षण यह प्रतीत होता है कि इनकी गणना भारत के श्रेष्ठतम आध्यात्मिक पुरुषों में होनी चाहिए।'
गुरुदेव तुलसी की उदग्र आकांक्षा थी कि सबका आध्यात्मिक विकास हो तथा सबमें चैतन्य का अवतरण हो। आत्मस्थ और स्थितप्रज्ञ मानस की ही परिणति थी कि उन्होंने स्व और पर की सारी सीमाएँ तोड़ दीं। उनके उदार मानस ने पर को स्व में तथा स्व को पर में इतना सन्निविष्ट कर लिया था कि हर जाति, कौम एवं