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________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता कुछ अधिक खा लिया जाता है अतः कम द्रव्य खाकर मैं जितना संतुष्ट रहता हूँ, उतना अधिक द्रव्य लेकर नहीं रहता।' इसी कारण आचार्य बनने ४१ बाद लम्बे समय तक उन्होंने नौ द्रव्य (खाद्य पदार्थ) से अधिक न खाने का दृढ़ संकल्प निभाया। डायरी के पृष्ठ भी उनके पदार्थों के खाद्य-संयम की ओर इंगित करते हैं - * 'इस बार पर्युषण में सिर्फ सात द्रव्य लग रहे हैं। उनमें दूध, चीनी, फुलका, तोरई का साग, पानी तथा दो और कोई। कुछ मन पर काबू जरूर रखना होता है। बाकी बड़ा आनंद रहता है । १५ दिन में सिर्फ एक बार कढ़ाई विगय लगी। प्रतिदिन तीन विगय से अधिक चातुर्मास भर में शायद न लगी। बड़ा आनंद है।' 'इस बार आषाढ़ शुक्ला ११ से खाद्यसंयम चल रहा है। १३ द्रव्य के उपरांत प्रायः नहीं लगते । पानी भी इन्हीं में है। उपवास का पारणा करने में भी इतने द्रव्यों से काम चल जाता है। कठिनाई जरूर पड़ती है, क्योंकि किसी को पता नहीं है अतः आशंका जरूर हो रही है कि क्या बात 'है? मेरी इच्छा है कि चल सके तो चातुर्मास भर चलाएं।' अनेक मनोज्ञ द्रव्यों की उपस्थिति में भी उनके मानस में दशवैकालिक की निम्न गाथा तरंगित होती रहती थी जे य कंते पिए भोए, लद्धे विपिट्ठिकुव्वई । साहीणे चयई भोए, से हु चाइ त्ति वुच्चई ॥ उक्त आगम वाक्य को चरितार्थ करने वाली यह घटना अनेक साधकों के लिए प्रेरणास्रोत का कार्य करेगी। सन् १९५८ लखनऊ का 'घटना प्रसंग है। भोजन प्रायः समाप्ति पर था । गुरुदेव ने मोटे भुजिए के दो-तीन टुकड़े हाथ में उठाए । खाने के लिए हाथ कुछ ऊपर उठा पर आत्मचिंतन ने हाथ की गति को वहीं रोक दिया। दो क्षण पश्चात् भुजिए के टुकड़े गुरुदेव ने वापिस पात्र में रख दिए। पास में खड़े संत ने भुजिए न खाने का कारण पूछा। गुरुदेव ने उत्तर देते हुए कहा- 'क्या यह खाना आवश्यक है ? भोजन हो गया, पेट भर गया, उसके बाद यह खाना स्वादवृत्ति का ही एक रूप है। जीभ को संतोष देना साधक का ध्येय नहीं होना चाहिए। उसका ध्येय होना चाहिए शक्तियों को जागृत करना । '
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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