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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
__ भोजन करके हाथ धोने के बाद कितनी ही मनोनुकूल या स्वास्थ्य के लिए हितकर चीज उपस्थित हो जाए पर गुरुदेव उसे ग्रहण नहीं करते थे। साधु-साध्वियों की अत्यन्त मनुहार या आग्रह होने पर भी वे अपने इस संकल्प को दृढ़ता से निभाते थे। कभी किसी के अनुरोध को स्वीकार भी करना पड़ता तो वह उन्हें रुचिकर नहीं लगता। कानपुर चातुर्मास का प्रसंग है। भोजन के अंत में गुरुदेव को पीपलपाक (मुखवास) के लिए प्रार्थना की गई पर गुरुदेव ने इंकार कर दिया। निषेध करने पर भी मुनिश्री के द्वारा बार-बार प्रार्थना की गई। तीव्र अनुरोध के आगे गुरुदेव को झुकना पड़ा। उन्होंने पीपलपाक का एक टुकड़ा अपने हाथ में लिया। टुकड़ा हाथ से छूटकर नीचे गिर गया। मुनिश्री ने दूसरा टुकड़ा ग्रहण करने का अनुरोध किया लेकिन गुरुदेव ने उसे लेने से इंकार करते हुए कहा-'प्रकृति खाने से इंकार कर रही है।' लगता है प्रकृति भी संयमी पुरुषों के विचारों के अनुकूल बन जाती है।
___ अस्वाद की साधना अनासक्ति से जुड़ी हुई है। जब तक साधक अनासक्ति का अभ्यास नहीं करता, तब तक हर अच्छे या बुरे पदार्थ में उसकी चेतना राग-द्वेष से संपृक्त हो जाती है। महावीर ने साधक को "बिलमिव पन्नगभूए' सूक्त के द्वारा अस्वाद वृत्ति की सुन्दर प्रेरणा दी है। जैसे सर्प इधर-उधर देखे बिना सीधा बिल में घुस जाता है, वैसे ही साधक बिना स्वाद लिए भोजन को चबाकर सीधा निगल जाए। भोजन के विषय में पूज्य गुरुदेव का मानस इतना सध गया था कि उनके लिए प्रिय-अप्रिय, रुचिकर-अरुचिकर, स्वाद-बेस्वाद जैसे प्रश्न गौण हो गए थे। दशवैकालिक के निम्न पद्य के साथ उनका इतना तादात्म्य हो गया था कि क्षण मात्र भी उसकी विस्मृति नहीं होती थी
तित्तगं व कडुयं व कसायं, अंबिलं व महुरंलवणंवा।
एय लद्धमन्न?पउत्तं, महुघयं व भुंजेज संजए॥ ... साधुओं को अनेक बार साम्यभाव की प्रेरणा देते हुए वे कहते थे-'भिक्षा में कभी खट्टा मिलता है, कभी मीठा, कभी तीखा, कभी कड़वा और कभी कसैला। कभी सरस तो कभी नीरस, कभी मनोनुकूल तो कभी प्रतिकूल । साधना कहती है कि भिक्षा में जो मिले, उसे समभाव से