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अध्यात्म के प्रयोक्ता खाएं । मनोनुकूल भोजन की प्रशंसा करके खाना संयम को कोयला बनाना है। अमनोज्ञ भोजन की निंदा करके खाना संयम को धुंआ बनाना है। मनोज्ञ और अमनोज्ञ भोजन को समभाव से खाना संयम को पुष्ट बनाना है।'
संसार में ऐसे व्यक्तियों की संख्या अधिक है जो भोजन के इंतजार में जीवन के कई कीमती क्षणों को गंवा देते हैं। भोजन सामने आने के बाद लालसा का संवरण करना तो और भी अधिक कठिन है। लेकिन गुरुदेव के जीवन में ऐसे प्रसंग अनेक बार देखे जाते जब आहार का समय होने पर या आहार की पूर्व तैयारी कर लेने पर भी यदि गुरुदेव किसी को तत्त्व समझाने में व्यस्त होते या कभी किसी की वैयक्तिक समस्या के समाधान में स्वयं को डुबोए रहते तो वे आहार को गौण कर चालू प्रसंग को ही मुख्यता देते। जब संत भोजन के लिए निवेदन करते तो वे कहते'आहार को प्राथमिकता नहीं, कार्य को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। मुझे लोगों की बुराई छुड़ाने में जो रस मिलता है, वह भोजन में नहीं।' सन् १९५८ का घटना प्रसंग है। पात्र में दूध ठंडा हो रहा था। गुरुदेव पत्र पढ़ रहे थे। संतों ने निवेदन किया-'दूध ठंडा हो रहा है।' गुरुदेव ने फरमाया'दूध की अपेक्षा पढ़ना रुचिकर लगता है।' अनेक बार गुरुदेव जब काव्यसंरचना में तल्लीन रहते तो भिक्षा की झोली सामने पड़ी रहती पर वे साहित्य-सृजन में ही आनंद का अनुभव करते। उनके जीवन से यह स्पष्ट प्रतीत होता था कि अध्ययन, अध्यापन, प्रशिक्षण, ध्यान एवं स्वाध्याय में उन्हें जो रस मिलता, वह खाद्य-पदार्थों में नहीं।
पूज्य गुरुदेव के खाद्य संयम का अभ्यास अनेक रूपों में प्रकट हुआ। आहार-संयम को उन्होंने अपनी व्यक्तिगत तपस्या का अंग तो बनाया ही, साथ ही साथ संघ या साधु-साध्वियों पर जब कभी विपत्ति के बादल मंडराए, गुरुदेव ने आत्मबल एवं संघबल बढ़ाने हेतु खाद्य-संयम के विशेष प्रयोग शुरू कर दिए।
साधु-साध्वियों के सिंघाड़े जब प्रथम बार सौराष्ट्र में गए तो उन्हें स्थान, गोचरी आदि की दुविधा झेलनी पड़ी। साम्प्रदायिकता के कारण उन्हें क्षेत्रीय कठिनाई का सामना भी करना पड़ा। जब गुरुदेव को यह बात ज्ञात हुई तो उन्होंने विगय-वर्जन एवं आहार-संयम का प्रयोग प्रारम्भ कर