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________________ सार्वभौम अध्यात्म के प्रतिष्ठाता स्वयं स्वयं की जातिस्मृति से, अथवा ज्ञानी के मुख से सुन, ज्ञात हुआ-संसरणशील मैं, सुख का दुःख का वरणशील मैं, दिग्-दिगन्त संचरणशील मैं, मैं उपपात-मरणधर्मा हूँ, कृतकर्मा हूँ, मैं अतीत में था, अब हूँ, भविष्य में बना रहूँगा, सोऽहं-सोऽहं का संगानी वही प्रत्यभिज्ञा-सन्धानी आयारो की अर्हत् वाणी॥ अपने अनुयायियों के समक्ष गुरुदेव समय-समय पर ऐसे प्रश्न उपस्थित करते रहते थे, जिससे वे स्वयं के भीतर झांक सकें तथा अपनी वृत्तियों का अनुमापन कर सकें। वे प्रेरणा देते हुए कहते थे–'हर व्यक्ति स्वयं को तोले कि उसका जीवन किस-किस की परिक्रमा कर रहा है १. शांति की अथवा क्रोध की? २. नम्रता की अथवा अभिमान की? ३. संतोष की अथवा आकांक्षा की? ४. ऋजुता की अथवा दंभ की? ५. अनाग्रह की अथवा दुराग्रह की? ६. वीरता की अथवा दुर्बलता की?' इसी संदर्भ में आत्मतुला पर आधारित यह प्रश्नावली भी अंतश्चेतना को झकझोरने वाली है-'व्यक्ति स्वयं अपनी वृत्ति की तुला पर तुल सकता है। उसकी वृत्तियों में क्रोध, मान, माया, लोभ आदि का उभार है या नहीं? वह किसी की प्रतिकूल हरकत को सहन कर सकता है या नहीं? वह अपनी दुर्बलताओं को स्वीकार कर सकता है या नहीं? यदि उसे दुर्बलताओं का अहसास हो जाता है तो वह उनसे मुक्त होने का प्रयास करता है या नहीं? इन सब बिन्दुओं, कसौटियों पर जो खरा उतरता है, वह अपनी सन्तता को उजागर कर सकता है। अन्यथा संत बनने के लिए कोई सर्टिफिकेट तो मिलता नहीं है, जिसे दिखाकर सन्तपना प्रमाणित किया जा सके।'
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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