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________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २४ 3 सामान्यतः बाहर घूमते रहे हैं। बाहर घूमने वाले लोग भटक जाएं, यह बात समझ में आती है पर जो वर्षों से आत्मा में वास करते हैं, वे क्यों भटकें ? सुरेन्द्रनाथ जैन दिगम्बर विद्वान् थे । वे गुरुदेव के चरणों में उपस्थित हुए और बोले—'दस वर्षों से दिगम्बर ग्रंथों का स्वाध्याय कर रहा हूँ । राजवार्तिक, समयसार आदि अनेक ग्रंथ पढ़ लिए पर आत्मतत्त्व पर जो निर्विकल्प विश्वास होना चाहिए, वह नहीं हो पाया है।' पूज्य गुरुदेव ने ' समाहित करते हुए कहा - 'आत्मतत्त्व का ज्ञान एवं उस पर विश्वास पुस्तकों से नहीं हो सकता। पुस्तकें तो केवल बाह्य ज्ञान देती हैं। आत्मोपलब्धि अध्यात्म-साधना से होती है । भले ही कोई ग्रंथ न पढ़ें पर आत्मसाधना करने वाले को आत्मदर्शन अवश्य होगा । केवलज्ञान की प्राप्ति पुस्तकों से नहीं, साधना से होती है । केवलज्ञान के लिए कहीं कॉलेज में भरती नहीं होना पड़ता, उसके लिये एकान्त में बैठकर अपनी आत्मा को पढ़ना होता है। गर्म तवे पर पानी की दो बूँदे चंद क्षणों में मिट जाती हैं, राजस्थान की धधकती बालू पर पानी की कुछ बूँदे असर नहीं दिखा सकतीं, वैसे ही ज्ञान दो बोल सीखने मात्र से आत्मसाक्षात्कार होना कठिन है, ' पूज्य गुरुदेव मुख से आत्मतत्त्व का विश्लेषण सुनकर सुरेन्द्रकुमारजी विस्मय विमुग्ध हो गए और भावविह्वल होकर बोले-' इतने बड़े तत्त्व की बात इतने सरल ढंग से आपने समझा दी। मेरा ज्ञानी होने का मद क्षणभर में उतर गया । आपकी वाणी सुनकर मुझे ऐसा लगा कि हजार शास्त्र पढ़े पंडितों से एक साधक की वाणी हजार गुना अधिक प्रभावी होती है । ' रूपक के माध्यम से आत्मोपलब्धि की प्रक्रिया को 'व्यवहार. बोध' में निबद्ध करते हुए पूज्य गुरुदेव कहते हैं तपे जमे मंथान से, मंथन फिर नवनीत । यही सयाने समझ ले, आत्ममिलन की रीत ॥ 'आयारो' के प्रथम सूत्र का काव्यमय अनुवाद हर आत्मजिज्ञासु साधक के लिए प्रतिदिन मननीय है - कोऽहं ? अरे ! कहां से आया ? और कहां जाऊंगा ? नहीं ज्ञान यह सबको होता, कैसी स्थिति पाऊंगा ?
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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