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________________ ५७ अध्यात्म के प्रयोक्ता आत्म-साक्षात्कार के लिए वनवास या अधिक श्रम की अपेक्षा नहीं है। मात्र जप-साधना से जन्म-जन्मान्तरों के पाप नष्ट हो जाते हैं, घर बैठे प्रभ मिल जाते हैं। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार जप धर्म की पहली सीढ़ी है। जप के माध्यम से ही मन के अनंत रहस्यों को पकड़ा जा सकता है। पूज्य गुरुदेव का मानना था कि जप सबसे सुगम आध्यात्मिक अनुष्ठान है। जप के माध्यम से ध्यान और कायोत्सर्ग की स्थिति तक पहुंचा जा सकता है। जो लोग जप की सीढ़ी को लांघकर सीधे ध्यान की स्थिति में पहुंचना चाहते हैं, वे प्रायः असफल हो जाते हैं।' पूज्य गुरुदेव ने अनेक मंत्रों को सिद्ध किया। जप के विषय में पूज्य गुरुदेव का आत्मविश्वास इस भाषा में व्यक्त हुआ–'मैं तो यह सोचता हूं कि साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए, आध्यात्मिक यात्रा को निर्बाध करने के लिए; अन्तर्जगत् में प्रवेश करने के लिए तथा भीतरी पवित्रता बढ़ाने की पहली प्रक्रिया है- जप। इसके प्रति अब अविश्वास के बाद एक नया विश्वास जाग रहा है।' जप-सिद्धि के लिए उनका अनुभव था कि यदि जप में आस्था हो, एकाग्रता हो, निरन्तरता हो और दीर्घकाल तक अभ्यास हो तो उसका परिणाम आता ही है। ___आज वैज्ञानिक जगत् में यह सिद्ध हो चुका है कि शब्द और चेतना के घर्षण से नयी विद्युत् तरंगें उत्पन्न होती हैं। लयबद्ध जाप से जप कर्ता के चारों ओर प्राणशक्ति के विशिष्ट प्रकम्पनों का जाल बिछ जाता है, जिससे व्यक्ति अपने भीतर नयी ऊर्जा का अनुभव करता है। उसका आभामण्डल शुद्ध हो जाता है। मंत्रशास्त्र के अधिकृत आचार्यों ने मंत्रसिद्धि के मुख्यतः तीन लाभ बताए हैं- निरामयता, निर्विकारता और निर्भयता। पूज्य गुरुदेव का अनुभव था कि जप से मुख्यतः तीन निष्पत्तियां घटित होती हैं- आत्मविकास, आत्मशांति और आनंदप्राप्ति। ___ पूज्य गुरुदेव प्रतिदिन तो नियमित रूप से जप करते ही थे विशेष अवसरों पर भी उन्होंने अनेक मंत्रों को सिद्ध किया था। उनका मानना था कि अनुशास्ता को कुछ मंत्र सिद्ध करने चाहिए, जिससे वह अपने व्यक्तित्व को प्रभावशाली बना सके। उसका आभामण्डल शुद्ध हो सके तथा तैजस शरीर अधिक शक्तिशाली बन सके। जप-साधना के विशिष्ट प्रयोग में
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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