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अध्यात्म के प्रयोक्ता
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और सोलहवीं तारीख को रात और दिन का पूर्ण मौन रखते थे । मौन के दिन पूरा समय ध्यान, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग में ही व्यतीत करते थे। मौन के दौरान कभी-कभी अनेक बार बोलने के प्रसंग उपस्थित हो जाते लेकिन गुरुदेव का मौन दृढ़ संकल्प के साथ जुड़ा हुआ था। एक बार मौन के दौरान दिन में अनेक प्रसंग ऐसे उपस्थित हो गए, जब उनको बोलना अनिवार्य लगा लेकिन वे वाग्गुप्ति की अखंड साधना करते रहे । दूसरे दिन अपनी अनुभूति व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा - 'प्राय: मुझे मौन अच्छा लगता है पर कल का मौन कठिन रहा। अनेक बार लगा कि बोलना आवश्यक है पर संकल्प दृढ़ रखा और नहीं बोला।'
यह सत्य है कि वे दृढ़ संकल्प के साथ महीने की पहली और सोलहवीं तारीख को मौन करते, पर जहां संघीय प्रभावना का प्रश्न आता अथवा संस्कृति की सुरक्षा के प्रसंग उपस्थित होते, वहां परिस्थिति-विशेष को देखकर मौन खोलने में उनका आग्रह भी नहीं था । जैन विश्व भारती संस्थान में 'राष्ट्रीय प्राकृत संगोष्ठी का आयोजन था । एक मार्च को उस गोष्ठी का समापन समारोह था। उस दिन गुरुदेव के मौन था । पर उस समापन समारोह में उन्होंने अपवाद को काम में लिया और विद्वानों को प्राकृत भाषा के विकास का प्रतिबोध दिया। इसी प्रकार सुजानगढ़ में एक अप्रैल को संघीय दृष्टि से गुरुदेव को मौन खोलना पड़ा।
सामान्यतः लोग मौन तो करते हैं पर मौन में अव्यक्त वाणी से अपनी सारी बात समझा देते हैं। ऐसे लोगों के लिए गुरुदेव का प्रतिबोध है कि मौन करके भी संकेतों से बात करने से इतनी अधिक शक्ति का व्यय होता है, जितना बोलने से भी नहीं होता। गुरुदेव की मौन- -साधना बाध्यता से प्रेरित नहीं थी इसलिए मौन काल में वे आवश्यक संकेत भी नहीं करना चाहते थे। उनकी दृष्टि में मौन तभी घटित होता है, जब निर्विचारता आ जाती है और व्यक्ति आत्म-स्वरूप में लीन हो जाता है ।'
साधना की चरम अवस्था में वाणी समाप्त हो जाती है पर प्रारम्भिक अवस्था में मितभाषिता की साधना भी बहुत बड़ी कसौटी है । मितभाषिता का अभ्यास करने वाला ही आत्मा की गहराई में प्रवेश कर सकता है। अधिक बोलने से चित्त में विक्षेप उत्पन्न होते रहते हैं । मितभाषिता को