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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
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शक्ति का व्यय होता, उसकी क्षतिपूर्ति हेतु उनका मौन का उपक्रम अनेक वर्षों से नियमित चलता था । मौन के प्रति उनकी उदग्र आकांक्षा को इन शब्दों में जाना जा सकता है - 'शक्तिसंवर्धन के लिए मुझे मौन साधना करनी चाहिए। संघ के उत्तरदायित्व को देखते हुए जितनी करना चाहता हूं, उतनी नहीं हो पाती। मैं आत्म-विकास व लोक-जागरण के लिए जो कुछ करना चाहता हूं, वह साधना का ही अंग है पर मौन साधना की ओर मेरा झुकाव ज्यादा रहता है । '
इसी संदर्भ में मौन के बारे में उनका यह अनुभव पठनीय ही नहीं, मननीय भी है— 'जब कभी अधिक बोलने का प्रसंग आता है, थकान का अनुभव होने लगता है । वचनगुप्ति का प्रयोग करने से थकान दूर हो जाती है, यह मेरा अनुभूत प्रयोग है। मैं बहुत वर्षों से प्राय: प्रतिदिन कुछ समय के लिए मौन करता हूं। मौन से विश्राम मिलता है, आनन्द मिलता है पर कायोत्सर्ग के साथ किए जाने वाले मौन की महिमा ही अलग है। अपनी इस अनुभूति को शब्द देते हुए मैंने कहा
मन्यते मौनमारामः, मौनं स्वास्थ्यप्रदं मतम् । कायोत्सर्गेण संयुक्तं, मौनं कष्टविमोचनम् ॥
को आराम मानता हूं, स्वास्थ्यप्रद मानता हूं । मौन के साथ कायोत्सर्ग का योग हो जाए तो वह सब प्रकार के कष्टों से छुटकारा दिलाने वाला हो जाता है ।' शेक्सपीयर का अनुभव भी इसी तथ्य का संवादी है— मौन आनंद का पूर्ण अग्रदूत है । '
आत्मदर्शन के लिए मौन का अभ्यास अत्यन्त अपेक्षित है। बिना मौन के चेतना के प्रकंपनों का अनुभव नहीं किया जा सकता। पाश्चात्त्य विद्वान् बेकन का कथन है कि मौन निद्रा के सदृश है। यह ज्ञान में नयी स्फूर्ति एवं शरीर में नयी शक्ति उत्पन्न करता है । महात्मा गांधी सप्ताह में एक दिन मौन करते थे। उन्होंने अपना अनुभव लिखा है कि मौन में कार्यजा शक्ति द्विगुणित हो जाती है। गुरुदेव ने सन् १९५० में प्रतिदिन २ घंटे मौन का अभ्यास प्रारम्भ किया, वह लगभग नियमित रूप से चला। मर्यादा- महोत्सव एवं पट्टोत्सव आदि आयोजनों के अवसर पर मौन के क्रम में थोड़ा अवरोध आ जाता। सन् १९९५ से वे हर महीने की पहली