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अध्यात्म के प्रयोक्ता
'ग्रामीण बहिनें दलिया दल रही हैं।' तत्काल गुरुदेव ने उसकी बात पर टिप्पणी करते हुए कहा- 'क्या पता बहिनें आटा भी तो पीस सकती हैं। वाणी का यह प्रयोग असत्य भी हो सकता है अत: इन शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है- चक्की चल रही है। आटा, नमक, हल्दी या दाल कुछ भी पीसा जाए, यह वाणी का व्यापक प्रयोग है। इससे सत्य की अधिक सुरक्षा हो सकेगी।' प्रस्तुत घटना उनके सूक्ष्म वाणी-विवेक का स्पष्ट निदर्शन है। डायरी के पृष्ठों में उनकी भाषा समिति की सावधानी एवं उसके प्रति जागरूकता की तीव्र तड़प स्पष्ट रूप से पढ़ी जा सकती
आज सवेरे जब सोकर उठा तब विचारों में उथल-पुथल सी थी। तेरापंथ द्विशताब्दी समारोह का बड़े पैमाने पर कार्य प्रारंभ कर दिया गया है। साहित्य की विशाल योजना हमारे सामने है। श्रावक लोग भी एकमत से जुट गए। इसमें बहुत से काम गृहस्थों से संबंधित और सावध भी होंगे। वे सबके सब हमारे सामने आए बिना रहते नहीं। वहां चिंतन में, भाषा में, कहीं-कहीं समिति-गुप्ति में खंडन भी संभव हो सकता है। ऐसी स्थिति में साधु संघ के समक्ष कोई स्थिति न आए, यह भी कैसे संभव हो सकता है? अत: 'विवेगे धम्ममाहिए' इसी पथ पर चलना होगा। न समाज के आवश्यक काम बंद होंगे और न हमारी साधना भी। चित्त को समाधान मिला। हां,यह जरूर है कि भाषा-समिति की गलतियां अनेक बार हो जाती हैं। उनको प्रोत्साहन नहीं, वे खामी पेटे ही गिनी जाएंगी।'
* 'मुझसे भाषा समिति व भावों की गलतियां कई बार हो जाती हैं। मैं बहुत महसूस भी करता हूं। मन में ग्लानि भी होती है, पर छद्मस्थता
के कारण ऐसा हो जाता है। आशा तो यही है कि साधना अधिक विशुद्ध रहे और रहेगी भी।'
___ एक विशाल संघ के शास्ता होने के कारण सैकड़ों लोग उनकी उपासना में उपस्थित होते थे। गुरुदेव के मुख से एक शब्द सुनकर भी वे अपने लम्बे यात्रापथ के श्रम को भूलकर धन्यता का अनुभव करते थे इसलिए गुरुदेव को दिनभर बोलना ही पड़ता था। आचार्य-काल में तो प्रवचन आदि का भी अतिरिक्त श्रम हो जाता था। बोलने में जो ऊर्जा या