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________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ६४ भारतीय ऋषि महर्षियों ने शांति और आनंद की उपलब्धि के लिए मौन की महिमा गाई है। आचार्य महाप्रज्ञ कहते हैं- 'मौन का अर्थ न बोलना ही नहीं है। मौन का अर्थ है- बोलने की अपेक्षा या बोलने की मांग को कम कर देना।' कहने का तात्पर्य यह है कि जहां एक शब्द से काम चल सकता हो, वहां दो शब्दों का प्रयोग न किया जाए। वचनगुप्ति के व्यावहारिक स्वरूप को प्रकट करने वाले दशवैकालिक नियुक्ति के ये पद्य मौन के बारे में एक नयी अवधारणा प्रस्तुत करते हैं वयणविभत्तिअकुसलो, वओगतं बहुविधं अजाणंतो । जइ वि न भासति किंची, न चेव वइगुत्तयं पत्तो ॥ वयणविभत्तीकुसलो, वओगतं बहुविधं वियाणंतो । दिवसमवि भासमाणो, अभासमाणो व वइगुत्तो ॥ अर्थात् जो वचन-विभक्ति में अकुशल है, बहुविध वाग्योग का विज्ञाता नहीं है, वह कुछ नहीं बोलने पर भी वाग्गुप्त नहीं होता तथा जो वचन - विभक्ति में कुशल है, अनेक प्रकार के वचोयोग का ज्ञाता है, वह दिन भर बोलता हुआ भी वाग्गुप्त होता है । परमार्थ पंचसप्तति में भी गुरुदेव ने इसी सत्य को काव्य में निबद्ध कर दिया है - मौन और वक्तव्यता, है वाणी का सार । निर्विचार सविचार से, खुलता मन का द्वार ॥ सत्य का साधक अपनी वाणी का प्रयोग बहुत जागरूकता से करता है । वह निश्चयकारिणी भाषा के प्रयोग से सदैव बचने का प्रयत्न करता है क्योंकि निश्चयकारिणी भाषा सत्य की सुरक्षा नहीं कर सकती । पूज्य गुरुदेव का वाक्प्रयोग इतना सधा हुआ था कि उसमें प्रायः स्खलना का प्रसंग नहीं आता था। वे शाश्वत सत्यों को आत्मविश्वास की भाषा में प्रकट करते पर व्यवहार में निश्चयकारिणी भाषा से बचते थे। दूसरों के द्वारा भी यदि भाषा का असम्यक् प्रयोग होता तो वे तत्काल उसे गलती का अहसास करवा देते थे । सन् १९६० का घटना प्रसंग है। गुरुदेव एक छोटे से गांव की पगडंडी से गुजर रहे थे । अस्पष्ट आवाज सुनकर कदम रोकते हुए उन्होंने पूछा - 'यह किसकी आवाज आ रही है ?' एक युवक ने उत्तर दिया
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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