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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
६८ परिभाषित करते हुए पूज्य गुरुदेव कहते हैं- 'मितभाषिता का मानदण्ड यही है कि व्यक्ति बोलने से पहले दो क्षण रुककर सोच ले कि कितना बोलना आवश्यक है ? अथवा बोलने के बाद यह समझने का प्रयास करे कि अभी उसके द्वारा जो बात कही गई है, वह नहीं कही जाती तो कौनसा काम रुकने वाला था। इस प्रकार विचारपूर्वक बोलना, बोलने के लिए कैसी भाषा का उपयोग करना, जोर से बोलना या धीरे बोलना आदि कई पहलू हैं, जो मितभाषिता का स्पर्श करते हैं।'
'मियं भासेज पण्णवं', 'मितं च सारं च वचो हि वाग्मिता' ये सूक्त उनके आदर्श थे। वे समय पर मौन रहते थे, साथ ही आवश्यकता होने पर भाषा का मित प्रयोग भी करते थे। अनेक बार देखा जाता कि किसी भी विवाद को सुनते समय या समस्या पर सामूहिक विचारविमर्श करते हुए गुरुदेव प्रायः मौन भाव से सबकी बात सुनते रहते थे। पक्ष-प्रतिपक्ष को घंटों सुनने के बावजूद तब तक अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते, जब तक उन्हें बोलने का औचित्य समझ में न आ जाता। उनका मंतव्य था- 'सुनो ज्यादा, बोलो कम। सुनने के लिए कान दो हैं और बोलने के लिए जीभ एक। जहां एक शब्द या वाक्य से काम चल सकता है, वहां दस शब्दों या वाक्यों का प्रयोग समय और शक्ति- दोनों का अपव्यय है।' इस संदर्भ में महात्मा गांधी का अनुभव भी पठनीय है- 'मैं प्रतिक्षण अनुभव करता हूं कि मौन सर्वोत्तम भाषण है। अगर बोलना ही चाहिए तो कम से कम बोलो। एक शब्द से काम चले तो दो मत बोलो।'
वाणी-संयम के संदर्भ में पूज्य गुरुदेव द्वारा प्रस्तुत किए गए प्रश्नों को सदैव स्मृति में रखा जाए तो स्वत: जीवन की प्रयोगशाला में वाक्संयम के अनेक प्रयोग किए जा सकते हैं- 'वाक्संयम का जीवन पर क्या प्रभाव होता है ? नहीं बोलने से क्या उपलब्धियां हो सकती हैं ? उससे प्राणधारा को कैसे प्रभावित किया जा सकता है ? मानसिक विकल्पों और उलझनों को कम करने का क्या उपाय है? निर्विचारता की स्थिति कैसे उपलब्ध हो सकती है? ध्वनि-तरंगों का व्यक्तित्व-निर्माण में क्या योगदान हो सकता है? वचन-प्रयोग से होने वाले शक्ति-क्षय को कैसे बचाया जा