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अध्यात्म के प्रयोक्ता करने से ग्लानि नहीं, अपितु मानसिक प्रसन्नता रहती है। जिस दिन ऐसे स्वाध्याय नहीं कर पाता हूं, उस दिन मन में ग्लानि-सी रहती है, अनुपात रहता है। मैं सबको प्रेरणा देना चाहता हूं कि स्वस्थ अवस्था में यह अवसर नहीं खोना चाहिए। यदि स्वास्थ्य या किसी अन्य कारण से खड़े-खड़े स्वाध्याय न हो तो कम से कम मन में अनुताप होना चाहिए। अनुताप होने से भविष्य में अवरोध नहीं आयेगा। ध्यान-साधना
___ ध्यान सुप्त शक्ति को जगाने का सशक्त उपक्रम है। पूज्य गुरुदेव की अनुभूति में चेतना का वह क्षण ध्यान है, जिसमें प्रियता-अप्रियता का भाव समाप्त हो जाता है। यही क्षण अप्रमाद का क्षण है, पूर्ण जागरूकता का क्षण है, भावक्रिया का क्षण है, मूर्छा की ग्रन्थि को तोड़ने का क्षण है, सुषुप्ति को मिटाने का क्षण है और है अहिंसा का क्षण।" ध्यान के इस स्वरूप-बोध के बाद स्पष्ट हो जाता है कि आंख मूंदकर बैठना ही ध्यान है, ऐसा आग्रह नहीं होना चाहिए। ध्यान-चेतना जागृत होने के बाद साधक बाहर रहता हुआ भी अंतर में जीता है।
पूज्य गुरुदेव स्वयं इस सत्य को स्वीकार करते थे कि साधना की परिपक्वता में ध्यान आदि के लिए समय लगाने की आवश्यकता नहीं है।
आंख मूंदकर बैठे या नहीं कोई अंतर नहीं आएगा किन्तु साधना के प्रारम्भ काल में मौन, कायोत्सर्ग, ध्यान आदि सभी अंग आवश्यक हैं। शिखर तक पहुंचने के बाद, जीवन में रूपान्तरण घटित होने के बाद, प्रियता और अप्रियता के भाव समाप्त होने के बाद साधक कृतार्थ हो जाता है फिर उसकी हर क्रिया ध्यान बन जाती है। इसी संदर्भ में ध्यानयोग के बारे में पूज्य गुरुदेव के ये विचार नयी अवधारणा को प्रस्तुत करने वाले हैं'जिस व्यक्ति में आत्मोपलब्धि की तडप तीव्र हो जाती है, वह किसी समय में बंधता नहीं, समय उसके साथ बंध जाता है। ध्यान का साधक एक-दो घंटा ध्यान में रहे और शेष समय चंचलता में रहे, यह वांछनीय नहीं हो सकता। यह वही स्थिति है, जो आज के धर्म की है। धर्मस्थान में जाकर व्यक्ति प्रथम श्रेणी का धार्मिक बन जाता है पर व्यवहार में धर्म का कोई प्रभाव नहीं रहता, यह दोहरी मानसिकता की स्थिति न धर्म को