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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी उजागर कर सकती है और न धार्मिक को एक सच्चे धार्मिक की प्रतिष्ठा दे सकती है। उपासना और आचरण में जब तक द्वैध बना रहेगा, धर्माराधना का अभीष्ट परिणाम नहीं आ सकेगा। ध्यान साधक का चित्त भी ध्यान से भावित होना चाहिए। ध्यान का प्रभाव समंचे दिन और समूचे जीवन पर होना चाहिए। ध्यान जीवन की समग्रता है। उसे देश और काल के खण्डों में विभाजित नहीं किया जा सकता। उसका प्रभाव सुबह जागरण से लेकर रात्रि में शयन तक की हर प्रवृत्ति पर होना चाहिए। चलना, बैठना, ठहरना, सोना, बोलना, खाना, पीना आदि जितनी प्रवृत्तियां होती हैं, उन सब पर ध्यान की पुट होने से ही व्यवहार में साधना की निष्पत्ति आ सकती है।'
गुरुदेव के आसपास रहने वाले व्यक्ति अनेक बार यह अनुभव करते थे कि आंखें खुली रहने पर भी वे बाह्य दृश्यों से अप्रभावित रहते थे। कान खुले रहने पर भी शब्दों की ध्वनि का कोई असर नहीं होता था। शरीर में भयंकर पीड़ा होने पर भी वे उससे अप्रभावित रहते थे। यह स्थिति वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, जो ध्यान की गहराई में उतर गया हो। निरालम्ब ध्यान की यह स्थिति आत्मविश्वास या विशेष क्षमता के बिना प्राप्त नहीं हो सकती। उनके स्थिरयोगी रूप को प्रकट करने वाले अनेक संस्मरण हैं। प्रस्तुत संस्मरण उन लोगों को प्रेरणा देने वाला होगा, जो मक्खी एवं मच्छर की भनभनाहट से विक्षिप्त होकर किसी कार्य में एकाग्र नहीं हो पाते हैं।
सन् १९६३ के लाडनूं चातुर्मास में ध्यान-दिवस का कार्यक्रम था। प्रवचन के समय आधा घंटा ध्यान का कार्यक्रम रखा गया। वहां मक्खियों की बहुलता थी। पूज्य गुरुदेव के मुखारविंद एवं शरीर पर मक्खियां अपना स्थान बना रही थीं। उन्हें हटाने के लिए मुनिश्री जयचंदलालजी सेवा में उपस्थित हुए। किन्तु गुरुदेव ने उन्हें ऐसा करने से इंकार कर दिया। प्रवचन-पंडाल में बैठे लोगों के हाथ मक्खियों को इधरउधर करने में घूम रहे थे पर गुरुदेव शांत एवं स्थिरभाव से ध्यान का अभ्यास कर रहे थे। उस दिन का अनुभव बताते हुए गुरुदेव ने प्रवचन में फरमाया- 'चित्त की घनीभूत एकाग्रता के कारण यह महसूस भी नहीं हुआ कि यहां मक्खियां सता रही हैं'। यह घटना उनके स्थिर एवं अविचल योगी का स्वरूप प्रकट करती है। जिनकी चेतना का प्रवाहं बाह्याभिमुख