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________________ ८३ अध्यात्म के प्रयोक्ता है, वह ध्यान नहीं कर सकता। आत्माभिमुख व्यक्ति ही ध्यान का अधिकारी हो सकता है। आधुनिक ध्यानयोगियों का मंतव्य है कि ध्यान करने के लिए विचारशून्य बनना आवश्यक है अत: जब तक चित्त स्थिर न हो, तब तक ध्यान नहीं किया जा सकता। इस अभिमत का प्रतिकार करते हुए पूज्य गुरुदेव ने अपने मत की प्रस्थापना करते हुए कहा - 'लोग यह कहते हैं कि मन स्थिर होगा तभी ध्यान करेंगे, यह भी एक प्रकार की विसंगति है । मन चंचल है, इसीलिए ध्यान का अभ्यास करने की जरूरत है । अभ्यास नहीं होगा तो मन कभी स्थिर बनेगा ही नहीं । चंचल मन में ध्यान नहीं हो सकता, अभ्यास के बिना चंचलता मिटेगी नहीं। इस दृष्टि से हर बात को सापेक्षता के आधार पर समझना चाहिए' कुछ लोग ध्यान को अकर्मण्य व्यक्तियों का काम मानते हैं । उनकी दृष्टि में ध्यान वे व्यक्ति करते हैं, जिनके पास कोई कार्य नहीं होता पर इस मान्यता से पूज्य गुरुदेव की सहमति नहीं थी । इसका निराकरण करते हुए वे कहते थे— 'मेरे अभिमत से यह चिन्तन उन लोगों का हो सकता है, जो ध्यान की विधि से परिचित नहीं हैं और उस प्रक्रिया से गुजरे नहीं हैं। जो ध्यान अकर्मण्यता को निष्पन्न करता है, मैं उसे ध्यान मानने के लिए तैयार नहीं हूं। ध्यान परम पुरुषार्थ और आंतरिक क्रियाशीलता है। इसे कोई-कोई व्यक्ति ही कर सकता है। ध्यान की शक्ति इतनी विस्फोटक होती है कि वह मानव - चेतना में छिपी अनेक विशिष्ट शक्तियों का जागरण कर मनुष्य को कहां से कहां पहुंचा देती है । ' कुछ लोगों का चिंतन है कि ध्यान व्यक्ति को स्वार्थी बनाता है। सामूहिक जीवन में जब व्यक्ति स्वयं को देखना प्रारम्भ कर देता है तो वह व्यक्ति दूसरों की कठिनाई एवं परेशानी को नहीं देख सकता अतः ध्यान करने वाला व्यक्ति अधिकांशतः अव्यवहारिक बन जाता है। जैनेन्द्रजी का चिंतन था कि ध्यान करने वाला व्यक्ति आत्मरति हो जाता है । वह अपने आप में रमण करने लगता है और समाज से कट जाता है इसलिए समाज के लिए वह उपयोगी नहीं बन सकता। इस प्रश्न के उत्तर में पूज्य गुरुदेव का चिंतन था कि ध्यान व्यक्ति को स्वार्थ की भूमिका से ऊपर उठाकर
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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