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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी कमी या आंधी-बरसात के कारण रात्रि-जागरण किया पर ऊंघते हुए नहीं, पूरी जागरूकता के साथ। अनेक बार वे अपने शिष्यों को प्रतिबोध देते हुए कहते थे- 'यदि तुम सफल और सार्थक जीवन जीना चाहते हो तो वर्तमान को पहचानो, क्षण को समझो और स्वाध्याय-ध्यान से उस क्षण का भरपूर उपयोग करो। वर्तमान का क्षण बहुत कीमती है। यदि इसे खो दिया तो पश्चात्ताप के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं रहेगा।'
स्वाध्याय चैतसिक निर्मलता बढ़ाने एवं अप्रमत्त जीवन जीने का महत्त्वपूर्ण साधन है। पूज्य गुरुदेव ने दशवैकालिक सूत्र के 'सज्झायम्मि रओ सया' इस आदर्श को आत्मसात् किया इसलिए कभी वे पठन रूप स्वाध्याय में लीन रहते तो कभी पाठन, वाचन और उद्बोधन रूप स्वाध्याय में। उनकी जागृत स्वाध्यायचेतना ने धर्म-संघ में विकास के नए-नए आयाम उद्घाटित किए, इसमें कोई संदेह नहीं है। खड़े-खड़े स्वाध्याय
___ साधना के अनेक प्रयोगों में पूज्य गुरुदेव का एक विशेष प्रयोग था-खड़े-खड़े ध्यान अथवा स्वाध्याय करना। ८३ साल की उम्र में भी खड़े-खड़े स्वाध्याय करना उनके विशिष्ट पराक्रम एवं मनोबल का प्रतीक था। स्थिर होकर खड़े रहना ऊर्ध्वारोहण की विशेष प्रक्रिया है। वे मानते थे कि खड़े होने का अर्थ है- गतिशील होना। बैठे-बैठे कोई चल नहीं सकता। चलना है, गति करना है तो खड़ा होना ही होगा। खड़ा रहना अप्रमत्तता का प्रतीक है।'
अपने ७१वें दीक्षा दिवस पर उन्होंने संपूर्ण संघ को खड़े-खड़े स्वाध्याय करने का आह्वान किया। सैकड़ों साधु-साध्वियों ने उनकी प्रेरणा से प्रतिदिन आधा घंटा खड़े-खड़े स्वाध्याय करने का संकल्प ग्रहण किया। उन्होंने केवल दूसरों को ही प्रेरणा नहीं दी, वे स्वयं भी नियमित रूप से खड़े-खड़े स्वाध्याय करते रहे।
लाडनं प्रवास में सर्दी की ऋतु में गुरुदेव खड़े-खड़े स्वाध्याय करवा रहे थे। सर्द हवा चलने पर भी गुरुदेव को पसीना आ रहा था। महाश्रमणजी (युवाचार्य महाश्रमण) ने गुरुदेव को बैठकर स्वाध्यान करने का निवेदन किया। लेकिन गुरुदेव ने फरमाया- 'खड़े-खड़े स्वाध्याय