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अध्यात्म के प्रयोक्ता
व्यक्ति भी उनसे प्रेरणा पाकर स्वाध्यायी बन जाते थे। सन् १९६१ के बीदासर चातुर्मास में प्रवचन के समय गुरुदेव ने स्वाध्याय की प्रेरणा दी। प्रेरणा से प्रभावित व्यक्तियों में पांच सौ पृष्ठों से लेकर दस हजार पृष्ठ तक पढ़ने का संकल्प लेने वाले भाई बहिन थे। गुरुदेव ने स्वाध्याय को अनुष्ठान का रूप देते हुए कहा- 'तपस्या की भांति स्वाध्याय की भी पंचरंगी, सतरंगी और नवरंगी की जा सकती है। प्रथम दिन पांच व्यक्ति एक-एक मुहूर्त तक स्वाध्याय करें। वे ही व्यक्ति दूसरे, तीसरे, चौथे और पांचवें दिन क्रमशः दो, तीन, चार और पांच मुहूर्त तक स्वाध्याय करें। यह स्वाध्याय की पंचरंगी हो जाएगी। गुरुदेव ने आगे फरमाया- 'मेरा विश्वास है कि प्रतिदिन 'पढ़ो और पढ़ाओ' इस प्रेरणा को अभियान का रूप देकर आगे बढ़ाया जाए तो सुंदर परिणाम सामने आ सकता है।' - गुरुदेव की इस प्रेरणा को पढ़कर कस्तूरचंद बांठिया ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा- 'मैं मुक्तकंठ से स्वीकार करूंगा कि स्वाध्याय की प्रेरणा अवश्य ही तुलसीगणी की मौलिक सूझ है। ज्ञान की वृद्धि के लिए अब तक के जैनाचार्यों में से किसी ने ऐसी प्रेरणा नहीं दी। बाह्य तप की प्रेरणा तो हरेक कोई देता है, जबकि आभ्यन्तर तप के बिना बाह्य तप कायक्लेश मात्र रह जाता है। इस स्वाध्याय की प्रेरणा के लिए मैं आचार्यश्री को अपनी श्रद्धा समर्पित करता हूं।'
सरदारशहर में मंत्री मुनि के स्थिरवास काल में जैन तत्त्वज्ञान का क्रम चलता था। बाद में वह शिथिल हो गया। उस शैथिल्य को कम करने के लिए मोहनजी जैन के संयोजकत्व में गुरुदेव ने स्वाध्याय कक्ष प्रारम्भ करने का निर्णय लिया। कुछ वर्षों तक वह क्रम चला फिर साधु-साध्वियों ‘की निरंतर सन्निधि न रहने से वह क्रम छूट गया।
कानपुर से कलकत्ता यात्रा के दौरान एक बार बिहार में बारिश शुरू हो गयी। जसीडीह गांव १२ मील दूर था। कच्चे रास्ते में बारिश में चलना कठिन था अत: गुरुदेव ने बीच में एक गांव में छप्पर के नीचे आश्रय लिया। उसी समय गुरुदेव ने तात्त्विक प्रश्नों की गोष्ठी प्रारम्भ कर दी। लगभग चौरासी मिनट तक प्रश्नोत्तर का क्रम चला पर किसी को समय का भान ही नहीं रहा। ऐसे एक नहीं, सैकड़ों प्रसंग हैं जब स्थान की