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साधना की निष्पत्तियां
उन्हें जो कुछ हासिल हुआ, उसे शब्दों में बांधना कठिन है फिर भी सत्यनिष्ठा, आत्मबोध आदि कुछ बिन्दुओं में उनकी साधना की निष्पत्तियों स्फुट रूप से प्रदर्शित किया जा रहा है
सत्यनिष्ठा
सच्चं भयवं, सच्वं लोयम्मि सारंभूयं, सत्येनोत्तम्भिता भूमिः ये शाश्वत स्वर सत्य की महत्ता के स्वयंभू प्रमाण हैं । सत्य की व्याख्या करते हुए पूज्य गुरुदेव कहते थे - " सत्य के प्रति आस्था का अर्थ है— अपने प्रति आस्था, जगत् के अस्तित्व के प्रति आस्था, पूर्वजन्म और पुनर्जन्म में आस्था, कर्म और उसके फल में आस्था तथा मोक्ष और उसके साधनों में आस्था।" हर महापुरुष अपने ढंग से सत्य की खोज करते हैं पर सत्य देश और काल से अबाधित होता है। सत्य की खोज कहीं भी किसी भी समय की जाए, उसका परिणाम समान आएगा। यद्यपि दूसरों के द्वारा खोजे सत्य से भी जीवन चलाया जा सकता है पर महावीर ने कहा" 'अप्पणा सच्चमेसेज्जा" अर्थात् स्वयं सत्य खोजो। इसी बात को प्रकारांतर से पूज्य गुरुदेव इन शब्दों में अभिव्यक्ति देते हैं- "दूसरों द्वारा खोजा हुआ सत्य बासी हो जाता है। हम बासी रोटी खाना पसन्द नहीं करते तो बासी सत्य से काम क्यों चलाएं? सत्य की खोज में लगे रहें तो कभी न कभी कोई दरवाजा स्वयं खुल जाएगा और अज्ञात ज्ञात में बदल जाएगा ।" यही कारण था कि वे कभी पुरानी लकीरों पर चलकर ही आत्मतोष का अनुभव नहीं करते थे सदैव कुछ न कुछ नया सोचते रहते थे ।
बचपन से ही पूज्य गुरुदेव की सत्यनिष्ठा प्रकर्ष पर थी। सत्य के प्रति अडिग विश्वास को व्यक्त करने वाला यह संस्मरण उन्हीं की भाषा में पठनीय है- " सच्चाई के प्रति मेरा सदा से अटूट विश्वास रहा है। मुझे याद है कि एक दिन मोहनलालजी की बहू (बड़ी भाभी) ने मुझसे कहा- "जाओ, ये पैसे लो और बाजार में जाकर कुछ लोहे की कीलें ला दो ।" नेमीचंदजी कोठारी, जो मेरे मामा होते थे, मैं उनकी दुकान पर गया । उन्होंने बिना पैसे लिए ही मुझे कीलें दे दीं। वापस आकर मैंने वे कीलें भाभी को दीं और साथ ही साथ पैसे भी दे दिए। यदि मैं चाहता तो पैसे आसानी से मेरे पास रख सकता था, पर सच्चाई के नाते मैंने वे नहीं रखे।'