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साधना की निष्पत्तियां जादू वह है, जो सर पर चढ़कर बोले, वैसे ही साधना वही है, जो जीवन-व्यवहार में मुखर हो। साधना केवल परलोक को सुधारने के लिए नहीं, अपितु इसी जीवन में नवजागरण का अनुभव करने के लिए की जाती है। जीवन भर साधना करने के बाद भी यदि जीवन में कषाय उपशांत नहीं हैं, समता का अवतरण नहीं है, आत्मौपम्य का भाव जागृत नहीं है तो साधना केवल भारभूत है। साधक सतत शुद्ध चैतन्य का अनुभव करता है। वहां सारे बाह्य संवेदन नीचे रह जाते हैं। पूज्य गुरुदेव के शब्दों में व्यक्ति समाज में रहकर साधना करे और कठिन परिस्थितियों की उपस्थिति में भी विचलित न हो, यह साधना की कसौटी है।"
सैद्धांतिक भाषा में षष्ठ, सप्तम गुणस्थानवर्ती आत्मा के पर्यवों की विशुद्धि ही उसकी साधना की सफलता की कसौटी है। द्वादश, त्रयोदश गुणस्थानवर्ती वीतराग जैसे व्यवहार वाले साधक विरले ही होते हैं। गुरुदेव के हर जीवन-व्यवहार से उनकी आंतरिक पर्यव-शुद्धि का आभास हमें मिलता रहता था।
__ पूज्य गुरुदेव की सहज साधना से उद्धृत निष्पत्तियों को जब हम आधुनिक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के संदर्भ में देखते हैं तो लगता है कि वे मौलिक वृत्तियों से बहुत ऊपर उठ चुके थे। इस अध्याय को पढ़कर यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि एक सामान्य व्यक्ति की भांति वे इन वृत्तियों के दास कभी नहीं बने। उन्होंने स्वयं को इनके अधीन नहीं बल्कि इनको खाद्य-संयम, अभय, समता, सहिष्णुता, अनासक्ति और अनाग्रह में बदलने का तीव्र प्रयत्न किया।
पूज्य गुरुदेव को जब भी देखा, जहां भी देखा, साधना उनके रोम-रोम से प्रस्फुटित होती दिखाई दी। उनके चरणों में आने वाला हर व्यक्ति उनके साधनामय तेजोवलय से अभिभूत हुए बिना नहीं रह सकता था। उनका जीवन अखंड आनन्द और शांति का अविरल स्रोत था, जिसमें हर क्लांत एवं श्रांत व्यक्ति अपने दैन्य और ताप का प्रक्षालन कर सकता था। गुरुदेव तुलसी ने नश्वर शरीर से अविनश्वर विभूति को प्राप्त कर संसार को संभूति एवं प्रज्ञा का दान दिया था। संयम की प्रकृष्ट साधना से