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अध्यात्म के प्रयोक्ता
इसी प्रकार सेवा और सहयोग भी जीवन के अमूल्य रत्न हैं। जो . व्यक्ति सामूहिक जीवन में समय पर दूसरों को सहयोग देना नहीं जानता, वह दूसरों से सहयोग-प्राप्ति की आशा कैसे कर सकता है ? सेवा सबसे बड़ी तपस्या है। इसमें अपने और पराए की भेदरेखा समाप्त हो जाती है अतः पूर्ण रूप से समर्पित व्यक्ति ही सेवा का आनन्द ले सकता है।
प्रतिमा का प्रेरणादायी प्रारूप प्रस्तुत करने के बाद गुरुदेव कुछ क्षण रुके और सबके चेहरों को गहराई से पढ़ने लगे। पुनः संवेग-स्रोतस्विनी की धारा प्रवाहित करते हुए गुरुदेव ने कहा- "जीवन में रूपान्तरण के लिए कुछ न कुछ प्रयोग चलते रहना चाहिए। दीक्षा लेना साधना का अथ . है, इति नहीं। यदि साधक का जीवन प्रायोगिक न हो तो जीवन जड़ बन
जाता है, उसमें तेजस्विता नहीं आ सकती। यह आध्यात्मिक वैज्ञानिक प्रयोग है। प्रतिदिन अनुप्रेक्षापूर्वक यदि इस प्रतिमा का सलक्ष्य निर्माण किया जाए तो अवश्य ही जीवन में अध्यात्म के नए सूर्य का अवतरण हो सकता है तथा "तमसो मा ज्योतिर्गमय" की दिशा में प्रस्थान किया जा सकता है। .
संघीय साधना के ये प्रयोग साधना में परिपक्वता लाने वाले हैं। हर प्रयोग एक नया अनुभव देने वाला तथा अग्रिम प्रयोग की भूमिका को सुदृढ़ करने वाला है। इन प्रयोगों से केवल तेरापंथ धर्मसंघ ही नहीं, अपितु संपूर्ण मानव जाति उपकृत हुई है।