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________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १५४ प्रयोग आवश्यक है, जिससे तदनुरूप परिणति हो सके। पूज्य गुरुदेव ने प्रशिक्षण का क्रम जारी रखते हुए कहा- "सिर शरीर का महत्त्वपूर्ण अंग है। उस स्थान पर चिंतन किया जाए कि मेरे कषाय उपशांत हो रहे हैं। आवेश करने का अर्थ है-दूसरे की गलती का बदला स्वयं से लेना अथवा स्वयं स्वयं का शोषण करना। आवेश व्यक्तित्व को दुर्बल बनाता है अत: मुझे आवेश नहीं करना है। अहंकार व्यक्ति के विकास को अवरुद्ध कर देता है अतः वस्तु एवं व्यक्ति के प्रति मेरा व्यवहार विनम्र होगा। इसी प्रकार ऋजुता और लाघव के विकास का चिंतन किया जाए। क्रोधादि कषाय उपशांत होंगे तो मस्तिष्क शांत रहेगा, उसकी कार्यक्षमता बढ़ेगी और अनावश्यक तनाव का अनुभव नहीं होगा। प्रतिदिन चिंतन करना चाहिए कि यौगलिक एवं अनुत्तरविमानवासी देवों की भांति मेरे कषाय उपशांत हो रहे हैं। हाथ कर्म के प्रतीक हैं। दोनों भुजाएं व्यक्ति को सदैव कर्म की ओर अभिप्रेरित करती रहती हैं। नवनिर्मित प्रतिमा की दायीं भुजा है विनम्रता तथा बायीं है सामंजस्य। विनम्रता और सामंजस्य- 'दोनों हाथ : एक साथ' लोकोक्ति को चरितार्थ करने वाले हैं। यदि विनम्रता है तो किसी भी परिस्थिति में सामंजस्य एवं समायोजन करना कठिन नहीं होगा। सत्य शोधक सदैव विनम्र होता है। यदि हम झुकेंगे तो सामने वाला झुक जाएगा पर इसका अर्थ स्वार्थवश झुकना या चापलूसी नहीं है। सामंजस्य का तात्पर्य यह भी नहीं है कि दूसरों के गलत कार्यों में सामंजस्य किया जाए। भिन्न रुचि, भिन्न स्वभाव वाले व्यक्तियों के साथ अपने आपको समायोजित करने की वृत्ति जागे, यह सामूहिक जीवन में शांत-सहवास की पहली अपेक्षा है। पैर गति, विकास एवं सहिष्णुता के सूचक हैं। पूरे शरीर का भार पैर ही वहन करते हैं। नवनिर्मित प्रतिमा का दायां पैर है सहिष्णुता एवं बायां पैर है-सेवा और सहयोग। अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति को सहन करने वाला अपनी शक्ति को बढ़ाता है। सहिष्णु व्यक्ति किसी अवांछनीय स्थिति के लिए दूसरों को दोष नहीं देता इसलिए प्रत्येक अप्रिय परिस्थिति में उसका मानसिक संतुलन बना रहता है। सहिष्णुता के अभाव में कदमकदम पर साधक को अनुत्तीर्ण होना पड़ता है।
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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