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अध्यात्म के प्रयोक्ता
महाप्रज्ञोऽस्तु मंगलं, तेरापंथोऽस्तु मंगलं ॥ विधनहरण मंगलकरण, स्वाम भिक्षु रो नाम । गुण ओलख सुमिरण करे, सरै अचिन्त्या कामं ॥ (तीन बार ) व्यक्तित्व-निर्माण का प्रयोग
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व्यक्तित्व-निर्माण संसार का सबसे कठिन कार्य है । व्यक्तित्वनिर्माण के क्षेत्र में गांधीजी के बाद पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। पूज्य गुरुदेव समय - समय पर व्यक्तित्व - निर्माण के अनेक सूत्र संघ के समक्ष प्रस्तुत करते रहते थे। उनकी तीव्र तड़प थी कि तेरापंथ संघ के हर सदस्य का जीवन आदर्श और प्रेरक हो । सन् १९९७ लाडनूं प्रवास में उन्होंने साधु-साध्वियों के समक्ष जीवन रूपांतरण की एक वैज्ञानिक रूपरेखा प्रस्तुत की, जिसके आधार पर हर व्यक्ति अपने जीवन को स्वस्थ, संतुलित और आनन्दमय बना सकता है। साधु-साध्वियों की गोष्ठी को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा'रूपांतरण के लिए नयी प्रतिमा बनाना आवश्यक है । " अनुरागाद् विरागः " यह अनुप्रेक्षा का सिद्धान्त है। जब तक नयी प्रतिमा या नए लक्ष्य का निर्माण नहीं होगा, पुराने संस्कारों को मिटाना कठिन होता है। रूपांतरण के लिए तीन तत्त्व आवश्यक हैं
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१. लक्ष्य का निर्धारण ।
२. प्रतिमा का निर्माण । ३. दृढ़ संकल्पनिष्ठा।
सर्वप्रथम लक्ष्य-निर्धारण हो कि मुझे अच्छी साध्वी या अच्छा साधु बनना है । तदनन्तर प्रतिमा का निर्माण किया जाए। किसी भी रेखाचित्र में पांच अंग मुख्य रूप से अनिवार्य होते हैं। वंदना भी पंचांग प्रणति के रूप में प्रसिद्ध है । वे पांच अंग हैं - सिर, दो भुजाएं, दो पैर । आंतरिक रूपांतरण हेतु नवनिर्मित ढांचे को भावना के साथ जोड़ना आवश्यक है। इसका क्रम इस प्रकार रहेगा
सिर-उपशांत कषाय ।
दो भुजाएं - विनम्रता और सामंजस्य ।
दो पैर - सहिष्णुता और सेवा - सहयोग ।
प्रतिमा निर्माण के बाद एकाग्रता से संकल्प एवं अनुप्रेक्षा का