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साधना की निष्पत्तियां
सिद्धान्त उनके रग-रग में समाया हुआ था। आज के यांत्रिकीकरण को देखकर बहुधा उनका मन पीड़ा से भर जाता था। वे अनेक बार लोगों की चेतना झकझोरते हुए कहते थे- 'मनुष्यत्व की सफलता यंत्र बनने में नहीं, बल्कि स्वतंत्र रहने में है। स्वतंत्रता का तात्पर्य अनुशासनहीनता नहीं, बल्कि आंतरिक बंधनों को तोड़ने से है।' बीकानेर के प्रसिद्ध डॉक्टर गुरुदेव के चरणों में उपस्थित हुए। उन्होंने भावभीनी वंदना करते हुए निवेदन किया- 'गुरुदेव! हम डॉक्टर लोग तो बाह्य चिकित्सा करके व्यक्ति को ठीक करते हैं लेकिन आप अहर्निश आंतरिक शल्य-चिकित्सा कर रहे हैं। गांधी महात्मा कहलाते हैं। उन्होंने देश को बाह्य स्वतंत्रता दिलाई लेकिन आप तो हर क्षण आत्मयुद्ध की प्रेरणा देकर आंतरिक स्वतंत्रता दिला रहे हैं। हम आपके कर्तृत्व एवं पौरुष का मूल्यांकन विशेषणों से आंके, यह ठीक नहीं, आप तो निर्विशेषण 'तुलसी' ही रहिए। 'राम' राम के रूप में ही भारतीय मानस में प्रतिष्ठित हैं। उन्हें बलवान् राम कहकर कोई नहीं पुकारता।
पूज्य गुरुदेव परिश्रम और श्रम के साकार प्रतिरूप थे। उनका कर्मकौशल असाधारण और अनुकरणीय था। साधारण व्यक्ति न तो उनकी भांति अविराम श्रम कर सकता है और न ही परिश्रम करने के बाद इतनी सहज और अक्लान्त मुस्कान ही बिखेर सकता है। संतुलन
साधना की कसौटी है- हर परिस्थिति में भावनात्मक स्तर पर संतुलन बनाए रखना। मानसिक संतुलन सधने के बाद साधक के सामने कोई भी समस्या ऐसी नहीं रहती, जिसका वह समाधान न खोज सके। पूज्य गुरुदेव का स्पष्ट मंतव्य था कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी प्रसन्नता एवं उत्साह के साथ अपने श्रेयपथ पर सतत गतिशील रहा जा सकता है क्योंकि कोई भी परिस्थिति या व्यक्ति किसी को सुखी या दुःखी नहीं बना सकता। सुख-दुःख का उत्स है उसका अपना संतुलन और असंतुलन। संतुलित व्यक्ति भोजन न मिलने पर सोचता है कि सहज तप का अवसर मिल रहा है। कोई गाली देता है तो उसमें उसे अपनी कसौटी दिखाई देती है और सम्मान पाने पर वह अपने दायित्व के प्रति जागरूक हो जाता है।