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________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ३०२ घाटी पार करने के बाद गुरुदेव का स्वागत करते हुए विधायक लक्ष्मी कुमारी चुंडावत बोली- 'आज आचार्यश्री को यहां पधारने में जो कष्ट हुआ, उसका स्मरण करने मात्र से दिल कांप उठता है। मैंने सब कुछ अपनी आंखों से देखा है। ये तूफानी हवाएं, वर्षा और कड़ाके की सर्दी। ऐसे में काली घाटी की चढ़ाई। आपने ६८ वर्ष की उम्र में हंसते-हंसते यह बीहड़ मार्ग तय कर लिया। मुझे अगर यह रास्ता तय करना पड़े तो कम से कम चार दिन लग जाएं। आपके इस पुरुषार्थ को बार-बार नमन।' इतना श्रम करने पर भी अभिमान उन्हें छू तक नहीं गया था। इस कार्यशीलता को भी वे अपने पूर्वजों की देन तथा गुरुकृपा मानते थे। अपनी भक्ति-पूरित भावना को वे बार-बार लोगों के समक्ष प्रस्तुत करते रहते थे- . * 'मेरे गुरुदेव ने दो बातें सिखलाईं-पहली यह कि अकर्मण्य जीवन नहीं जीना और दूसरी विलासिता एवं सुविधाओं भरा जीवन नहीं जीना। इसी का परिणाम है कि आज भी मैं बिना श्रम किए नहीं रह सकता। मैं सुविधा नहीं, श्रम पसन्द करता हूं।' * 'मैं इसे स्वयं पर गुरुओं की कृपा मानता हूं कि कितना ही श्रम करूं, मन या दिमाग पर कोई भार नहीं होता।' निराशा से तो गुरुदेव का जन्मजात विरोध था। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी वे निराश होना नहीं जानते थे। उनका मानना था कि पुरुषार्थ का दीप निरंतर जलकर ही निराशा के सघन तिमिर को मिटा सकता है। जो व्यक्ति अपने पौरुष बल से समस्या का समाधान करना नहीं जानता वह पशु की भांति अपने जीवन को व्यर्थ खो देता है। सन् १९५७ में कहे गए उनके ये वाक्य आज भी अकर्मण्य व्यक्ति को झकझोरने में समर्थ हैं- 'पशुओं के सामने जब समस्या आती है तो वे मर जाते हैं, समस्या से लड़ना नहीं जानते। ज्योंही घास आडी नहीं हुई कि वे मर जाते हैं। मनुष्य मरना नहीं चाहता वह समस्या से लड़ता है, इसीलिए नित नए विकास के आयाम खोलता रहता है।" गुरुदेव तुलसी का विश्वास यांत्रिक जीवन में नहीं, अपितु स्वतंत्र कर्तृत्व को करते हुए जीवन जीने में था। जैनदर्शन सम्मत आत्मकर्तृत्व का
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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