SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २२२ चैतसिक चंचलता कम होते ही अनासक्ति अपने आप अवतरित हो जाती है। चंचलता व्यक्ति को फलाशंसा से मुक्त नहीं रहने देती। निम्न घटना प्रसंग से भी पूज्य गुरुदेव यही संबोध देना चाहते हैं। ___कुछ साधु भिक्षा लेकर स्थान पर पहुंचे। आहार का कार्य सम्पन्न हो गया। आहार के पश्चात् स्थान की सफाई में कुछ असावधानी रह गयी। इसलिए भोजन के एक-एक कण पर सैकड़ों चींटियां एकत्रित हो गयीं। गुरुदेव की दृष्टि उन पर टिक गयी। गुरुदेव ने एक साधु को पानी का हल्का सा छिड़काव करने को कहा। वैसा करने से चींटियों का मुख मुड़ गया। वे इधर-उधर घूमने लगीं। उस प्रसंग को प्रेरणा बनाकर अनासक्ति का प्रतिबोध देते हुए पूज्य गुरुदेव ने फरमाया- 'देखो, चींटियों को खाने के लिए कितना सा चाहिए? पर इनकी आसक्ति इतनी विशाल है कि सारे दिन दौड़-धूप करती हैं। साधक जीवन में भी आसक्ति है तो स्थिरता की साधना नहीं हो सकती।" उक्त घटना-प्रसंग से अनेक साधुओं को आत्मनिरीक्षण कर अपनी-अपनी आसक्ति देखने का जीवन्त बोध मिल गया। प्राप्त शक्ति का चमत्कार में उपयोग करना शक्ति का दुरुपयोग है। अनासक्त साधक का मन बाह्य चमत्कारों एवं तुच्छ उपलब्धियों में नहीं अटकता। गंभीरचेता और निर्लेप होने के कारण पूज्य गुरुदेव बाह्य चमत्कारों के आकर्षण में नहीं बंध पाते थे। साधना से प्राप्त शक्ति के चमत्कार प्रदर्शन के बारे में उनका मंतव्य अनेक साधकों को प्रेरणा देने वाला है- 'एक बात बार-बार सुनने में आती है कि जहां इतना बड़ा संघ हो, वहां चमत्कार भी होने चाहिए। चमत्कार को नमस्कार की दुहाई देकर उक्त बात की पुष्टि की जाती है। एक दृष्टि से बात ठीक है, आकर्षण पैदा करने वाली है। कभी-कभी मन में भी आ जाती है किन्तु आगे चलकर यहीं चिंतन रहता है कि जहां कहीं ऐसे प्रयोग हुए हैं, उन्हें तात्कालिक लाभ अवश्य मिला है, उनकी ख्याति भी हुई है, उन्हें राज्याश्रय और जनाश्रय भी प्राप्त हुआ है पर उससे आगे का परिणाम सुखद नहीं रहा।'... मेरा स्पष्ट मंतव्य है कि शक्ति प्रयोग का रास्ता निरापद नहीं है। यदि कभी विशिष्ट उपलब्धि उत्पन्न हो जाए तो उसे भीतर पचा लेना चाहिए।'
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy