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________________ २२१ साधना की निष्पत्तियां किसी के साथ नहीं जाता पर धन की आसक्ति व्यक्ति को व्यर्थ ही दुःख और संक्लेश देती रहती है। व्यामोह को त्यागो तो प्रसन्नता ही प्रसन्नता है। मन को 'मैं' और 'मेरा' यह भावना ही दुःख देती है। जब यह समाप्त हो जाती है तो व्यक्ति सुखी हो जाता है।" अनासक्ति का यह प्रेरक संदेश हर आसक्त व्यक्ति की आंखों को खोलकर भीतरी समृद्धि के दर्शन कराने वाला है। भगवान् बुद्ध से जब पूछा गया कि समृद्धि का सार क्या है? तब उन्होंने उत्तर देते हुए कहा- 'अनासक्ति (विमुक्ति) ही वैभव एवं समृद्धि का सार है।' अध्यात्म पदावली में पूज्य गुरुदेव ने अनासक्ति के इसी स्वरूप को काव्यबद्ध किया है जागे सुख-दुःख के प्रति, अंतः सम्यग्दृष्टि। घटित तभी होती सहज, अनासक्ति की सृष्टि॥ कुछ साधक इंद्रियों को नष्ट करने की बात कहते हैं। उनके अनुसार आंख का आकर्षण मिटाने के लिए आंख को फोड़ देना चाहिए। भगवान् महावीर ने इस मान्यता का खंडन किया। उन्होंने कहा- "आसक्ति का मूल स्रोत हमारी वृत्तियां या कुत्सित विचार हैं । इंद्रियां तो खिड़कियां हैं, जिनमें से आसक्ति झांकती है।" इस संदर्भ में पूज्य गुरुदेव के मंतव्य पठनीय हैं * "इंद्रियां किसी विषय में आसक्त नहीं हो सकतीं। वे तो प्रिय-अप्रिय सभी विषयों को निर्विकार रूप से ग्रहण करती हैं। प्रियताअप्रियता का सम्बन्ध आसक्ति, उत्सुकता एवं आकर्षण से है।" * पदार्थ से या उसके भोग से हमारा कोई अहित नहीं होता क्योंकि दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व है। खतरा होता है मूर्छा से, राग से। जब तक मर्छा के संस्कार नहीं टूटेंगे, दुःख को कम नहीं किया जा सकता। मनुष्य को भटकाने वाली न इंद्रियां हैं और न विषय हैं । आसक्ति के कारण व्यक्ति भटकता रहता है। अध्यात्म पदावली में उत्तराध्ययन की गाथा का भावानुवाद करते हुए पूज्य गुरुदेव कहते हैं शक्य नहीं है शब्द न सुनना, खुले स्रोत के हैं जब द्वार। शक्य यही है हो न शब्द में, द्वेष-राग का अनुसंचार॥ चंचलता और आसक्ति का अनादिकालीन सहानवस्थान है।
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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