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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
१०० सामण्णमणुचरंतस्स, कसाया जस्स उक्कडा होति। मन्नामि उच्छुफुल्लं व, निष्फलं तस्स सामण्णं॥
'उवसमसारंखुसामण्णं' बृहत्कल्प भाष्य की यह सूक्ति गुरुदेव के जीवन में चरितार्थ देखी जा सकती थी। वे जानते थे कि कषाय से विरत रहने वाला साधक ही स्वतंत्र एवं शांत जीवन जी सकता है। कषाय से प्रभावित व्यक्ति सदैव दूसरों के हाथों की कठपुतली बन जाता है। सामान्यतः देखा जाता है कि विरोधी स्थिति उत्पन्न होने पर व्यक्ति ईंट का जवाब पत्थर से देता है, पेम्पलेट के प्रत्युत्तर में बुकलेट छापता है, पर गुरुदेव का जीवन इसका अपवाद था। उन्होंने प्रयत्नपूर्वक कषायों पर विजय प्राप्त करने की साधना की इसलिए कोई भी विरोध या प्रतिकूल परिस्थिति उनको उत्तप्त नहीं कर पायी। नडियाद गांव में पूज्य गुरुदेव का तीव्र विरोध हुआ। विरोधी लोगों ने गंदे पोस्टर एवं भ्रांत वाक्यों का स्थान-स्थान पर प्रदर्शन किया। इस स्थिति को देखकर कुछ युवक आवेश में आ गए। गुरुदेव ने उनको शांत करते हुए कहा- 'तुम लोग उत्तेजित क्यों हो रहे हो? वे लोग तुम्हारे ही काम में सहयोग कर रहे हैं। तुम प्रचार करना चाहते हो, वे लोग पोस्टरों एवं स्लाइडों के माध्यम से सहज रूप में ऐसा कर रहे हैं। युवकों ने गुरुदेव के सामने प्रतिकार करने की भावना रखी। गुरुदेव ने उनको समाहित करते हुए कहा- 'कीचड़ में पत्थर फेंकने से क्या लाभ? हमें तो शांत होकर यह चिंतन करना चाहिए कि सबमें सन्मति हो भगवान। विरोध के ऐसे सैकड़ों प्रसंग उनके जीवन में आए पर उनके संवेग प्रतिकूल परिस्थितियों में भी संतुलित बने रहे।
____ महावीर ने कहा कि जो साधक अपने क्रोध आदि कषायों को देखना सीख लेता है, उसकी चेतना कषाय से मुक्त हो जाती है। पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी आत्मद्रष्टा ऋषि थे। कषाय की क्षीण रेखा का अहसास भी उन्हें सहजतया हो जाता था। डायरी का यह पृष्ठ उनकी इसी आत्मदर्शी वृत्ति को प्रकट करने वाला है-'कल क्षमा का दिन था। मैंने भी जागरूकता रखी पर सूक्ष्मता से ध्यान दिया तो एक दिन में पंद्रह बार उत्तेजना आई। उसको दूसरा तो जान ही नहीं सकता, खुद भी ध्यान देने से ही समझे। इससे मालूम पड़ता है कि क्रोध-विजय कितना दुरूह है।' महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाजी का कहना है कि क्रोध की इतनी सूक्ष्म परिणति को