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साधना का उद्देश्य पौराणिक कथा के अनुसार भृगु ने अपने पिता वरुण से कहा'भगवन्! मैं ब्रह्मज्ञान पाना चाहता हूँ अत: आप मुझे कोई सरल रास्ता सुझाएं।' पिता ने उसे तपोमार्ग का निर्देश दिया। कठिन तपस्या की समाप्ति पर उसने पिता से कहा-'पिताश्री! अन्न ही ब्रह्म है।' पिता ने कहा'पुत्र! अभी तुम अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँचे हो अत: दुबारा तप करो।' दूसरी बार तप की समाप्ति पर उसने कहा- 'प्राण ही ब्रह्म है।' इस बार के उत्तर से भी पिता संतुष्ट नहीं हुए। वरुण पुन: कठोर तपस्या में संलग्न हो गया। तप में उसे अनुभव हुआ कि मन ही ब्रह्म है।' पुनः तप करने पर "विज्ञान ही ब्रह्म है' ऐसी अवधारणा पुष्ट हुई। पिता ने पुत्र से कहा'पुत्र! अभी मंजिल प्राप्त नहीं हुई है, पुनः तप करो।' इस बार तप की सम्पन्नता पर वरुण का मुख अलौकिक तेज से दमक रहा था। उसने कहा- 'पिताश्री! आनंद ही ब्रह्म है।' पिता ने पुत्र को गले लगाते हुए कहा- 'बेटा! तुम्हारी खोज पूरी हुई। आनंद का अर्थ है-अध्यात्म की प्राप्ति। तुम्हारी आत्मा की खोज पूर्ण हुई।' ___आत्मा की खोज अनादिकाल से चल रही है और तब तक चलती रहेगी जब तक मनुष्य का अस्तित्व विद्यमान रहेगा। साधना के क्षेत्र में दूसरों द्वारा की गई खोज का महत्त्व नहीं होता। हर साधक जीवन की प्रयोगशाला में प्रयोग करके नए-नए अनुभव प्राप्त करता है। साधना क्यों? इस प्रश्न का उत्तर कोऽहं से सोऽहं तक की यात्रा में सन्निविष्ट है। गुरुदेव तुलसी द्वारा रचित 'प्रेक्षा संगान' में उद्गीत पद्य इसी सत्य की ओर इंगित करने वाले हैं
जिज्ञासा अस्तित्व की, है पहला सोपान। हर साधक पहले करे, कोऽहं की पहचान॥ कोऽहं कोऽहं में सदा, रहे हृदय बेचैन।
मिले साधना-पथ स्वयं, बेचैनी की देन॥ अस्तित्व की खोज और उसे पाने की अकुलाहट व्यक्ति को साधना की ओर प्रस्थित करती है। पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी का अनुभव था कि बेचैनी के चरम शिखर पर पहुँचने पर साधना-पथ स्वयं मिल जाता है तथा