________________
साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
१९८
साथ प्रतिबद्ध नहीं होता। पदार्थ मिलने या न मिलने पर भी उसकी प्रसन्नता एवं आनन्द में कोई अन्तर नहीं आता । पूज्य गुरुदेव निर्लिप्तता के साकार प्रतिरूप कहे जा सकते हैं। वे न किसी पदार्थ से लिप्त थे न पद-विशेष से । न शरीर में आसक्त थे न शिष्य-सम्पदा में । न प्रतिष्ठा प्राप्ति में प्रतिबद्ध थे, न सम्प्रदाय विशेष से । यही कारण है कि अल्पतम साधन-सामग्री में भी वे अपने आनन्द को मन्द नहीं होने देते थे । धर्मसंघ के शिखर पुरुष होने पर भी वे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु कभी किसी पर भार डालना नहीं चाहते थे।
साधक किसी पदार्थ या व्यक्ति से प्रतिबद्ध रहे, यह गुरुदेव को रुचिकर नहीं लगता था। उनका मानना था कि विवशता या प्रतिबद्धता व्यक्तित्व का दुर्बल पक्ष है, वह चाहे खान-पान सम्बंधी हो या आदत सम्बंधी । साधक की प्रतिबद्धता साधना है, स्थिति या परिस्थिति नहीं । पदार्थ या परिस्थिति से बंधने वाला साधक साधना के क्षेत्र में आगे गति नहीं कर सकता । व्यक्ति की जीवन्तता इसी में है कि साधक जीवन भर अप्रतिबद्ध और निर्लिप्त बना रहे।' अच्छे से अच्छा पदार्थ एक या दो दिन लेने के बाद तीसरे दिन गुरुदेव उसे तत्काल छोड़ देते थे। संतों का आग्रह भी उनके संकल्प को कमजोर नहीं कर पाता था । सन् १९९६ लाडनूं का घटना-प्रसंग है। स्वास्थ्य की दृष्टि से दोपहर के समय डॉक्टर ने गुरुदेव को कुछ रस लेने का परामर्श दिया। तीन दिन गुरुदेव ने रस ग्रहण किया। चौथे दिन लेने से इंकार कर दिया। साध्वियों ने बहुत प्रार्थना की- आज गुरुदेव कृपा करके रस ग्रहण करें' । गुरुदेव ने फरमाया - " शरीर की आवश्यकता न होने पर भी पदार्थ ग्रहण करना प्रतिबद्धता और पराधीनता है । 'रामोद्वर्नाभिभाषते ।' मेरा संकल्प पक्का है अतः जो यह पथ्य लाया है, वही ग्रहण करे, मैं नहीं करूंगा।"
बिना दृढ़ संकल्प के इस अप्रतिबद्धता को नहीं साधा जा सकता। अमुक पदार्थ मिलना ही चाहिए, अमुक परिस्थिति में ही काम किया जा सकता है, ऐसी प्रतिबद्धता को वे साधना का विघ्न मानते थे पर सत्य, संयम और स्वभाव की प्रतिबद्धता को वे हर क्षण काम्य मानते थे । आचार्य महाप्रज्ञका अनुभव है कि यदि पदार्थ के साथ साधक की कोई प्रतिबद्धता