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साधना की निष्पत्तियां
न हो तो व्यर्थ विकल्पों को उभरने का अवकाश ही नहीं मिलता। आदमी किसी के साथ बंधता है, तभी वह बेचैनी को निमंत्रण देता है। जो व्यक्ति अप्रतिबद्ध हो, अनासक्त हो, किसी के साथ बंधा हुआ न हो, उसे दुःख क्यों होगा? वह किसकी चिन्ता करेगा और किसलिए करेगा?" कहा जा सकता है कि सहज, शांत और सुखी जीवन का राज अप्रतिबद्धता में अन्तर्निहित है।
सन् १९६२ की घटना है। विहार के दौरान बार्गीलिया गांव में स्थान का अत्यन्त अभाव था। जिस मकान में गुरुदेव विराज रहे थे, वहां पक्का फर्श नहीं था। फर्श के लिए चौके लाए हुए पड़े थे। संत पट्ट की खोज में बाहर जाने लगे पर गुरुदेव ने फरमाया- 'दो तीन चौकों को ठीक से लगा दो आज इसी पर विश्राम करेंगे। मुझे ऐसा मौका कभी-कभी ही मिलता है। 'मही रम्या शय्या, विपुलमुपधानं भुजलता' का साक्षात् अनुभव आज करना चाहिए। संत उनकी इस निस्पृहता एवं अप्रतिबद्धता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। इसी प्रकार सन् १९६७ की गुजरात यात्रा के दौरान गुरुदेव मोमायमोरा गांव पधारे। जिस आवासस्थल में गुरुदेव विराजे, वहां की धरती बहुत उबड़-खाबड़ थी। संत तख्त लाने हेतु जाने लगे पर जब गुरुदेव को ज्ञात हुआ कि तख्त बहुत भारी है तो संतों को आदेश की भाषा में कहा- "दुनिया में लाखों लोग नीचे जमीन पर सोते हैं फिर मैं कौन सा विशेष हूं। यह निर्लिप्तता एवं आकिंचन्य का भाव उन्हें विशेष साधना से प्राप्त था।
अवस्था प्राप्त होने पर भी शारीरिक सेवा की दृष्टि से उन्होंने स्वयं को प्रतिबद्ध नहीं बनाया। ७० वर्ष की उम्र में लम्बे विहारों में भी तेलमालिश या पैर दबवाने की सेवा ग्रहण करना उनको रुचिकर नहीं लगता था। ७५ वर्ष की उम्र में अपनी मानसिकता को व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा- 'दक्षिण यात्रा के दौरान मैं कभी-कभी संतों से पैर दबवा लिया करता था पर मैंने इसे बुढ़ापे का लक्षण समझा और वैयावृत्य लेना बंद कर दिया।' यह अप्रतिबद्धता और ताजगी ही उनके अक्षुण्ण यौवन का राज थी।
अणुव्रत विहार से गुरुदेव का विहार हो रहा था। अचानक श्वास