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साधना की निष्पत्तियां लिए अतिरिक्त भोजन नहीं बनाना है। अपने लिये बने भोजन में से कुछ हिस्सा देना है। यदि हम भोजन कर लेते तो फिर भिक्षा में क्या देते? अभी तक परिवार के किसी सदस्य ने भोजन नहीं किया है।' गुरुदेव ने उनके यहां अपने हाथ से भिक्षा ग्रहण की। उक्त घटना से स्पष्ट है कि भूल या विस्मृति का परिमार्जन करने में उनकी दृष्टि कितनी जागरूक थी।
तेरापंथ की नियति है कि यहां अहंकारी का अस्तित्व टिक नहीं सकता। तेरापंथ में आज तक अनेक विद्वान् मुनि अपने अहंकार के कारण संघ से पृथक् हुए या संघ से पृथक् कर दिए गए। एक विद्वान मुनि ने असहनीय त्रुटि की। गुरुदेव ने उन्हें संभलने का अवसर दिया। पर वह अपने अहं के कारण गुरुदेव के निर्देशों को टालता रहा। गुरुदेव ने उसे संघ से पृथक् कर दिया। उस समय गुरुदेव को भीषण आन्तरिक संघर्ष का सामना करना पड़ा। तत्कालीन अपनी मनःस्थिति को स्पष्ट करते हुए गुरुदेव ने कहा- 'यह वर्ष मेरे लिए भारी रहा। अगर मैं कहूं कि उन बहिष्कृत या उनको सहयोग देने वाले व्यक्तियों के प्रति मेरे मन में कुछ नहीं आया तो यह औपचारिक बात होगी। मेरे मन में छद्मस्थतावश आक्रोश या अन्यथा भावना आई है अतः मैं उन सबसे क्षमायाचना करता हूं। यद्यपि आक्रोश मुझ में पानी की लकीर जैसे अधिक देर टिकता नहीं, फिर भी मुझे क्षमायाचना करनी ही चाहिए।'
भूल-स्वीकार एवं उसका परिमार्जन बिना साधना के संभव नहीं है। पूज्य गुरुदेव के जीवन के ये प्रेरक संस्मरण हर साधक को आत्मनिरीक्षण की प्रेरणा देते हैं तथा दूसरों की त्रुटि न देखकर स्वयं की भूल देखने का सबक सिखाते हैं। अप्रतिबद्धता
नाव पानी में रहे, यह जग विख्यात है किन्तु यदि नाव में पानी आ जाए तो खतरनाक स्थिति है। साधक संसार में रहे यह ठीक है किन्तु यदि साधक के मानस में संसार बसने लग जाए तो साधना निस्सार हो जाती है। महावीर ने साधक को कमल से उपमित किया है। जैसे कमल कीचड़ में रहकर भी उससे अलिप्त रहता है, वैसे ही साधक संसार में रहता हुआ भी संसार से निर्लिप्त रहता है। यही कारण है कि उसका आनन्द पदार्थ के