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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
३१० से घबरा जाता तो इतना काम कभी नहीं होता। हो सकता है काम करतेकरते कोई भूल भी हो जाए, ध्यान में आने के बाद उसमें संशोधन हो जाना चाहिए, यह स्वस्थ परम्परा है पर कठिनाइयों से घबरा कर कार्य से विमख होना कायरता है। निषेधात्मक भावों से आक्रान्त एवं प्रमादी व्यक्ति कभी सफलता की दिशा में चरणन्यास नहीं कर सकता। बड़ी से बड़ी समस्या के समय यदि हिम्मत और आत्मबल से काम लिया जाए तो समाधान का पथ मिल सकता है। अविश्रांत भाव से चलने वाला साधक ही मंजिल की दूरी को कम करता हुआ अपने गंतव्य को प्राप्त करता है।'
आत्मबल का बोध होने पर ही आत्मजागृति का मार्ग प्रशस्त होता है, जब तक आत्मा की अनन्त शक्तियों की पहचान नहीं होती, साधक का सारा ध्यान केवल पदार्थ तक ही सीमित रहता है। आत्मजागरण की दिशा अनजानी ही बनी रहती है। पूज्य गुरुदेव अनेक बार प्रेरणा देते रहते थे'अपने भीतर असीम ऊर्जा और शक्ति का अनुभव करो, एक स्वर्णिम प्रभात स्वत: तुम्हारी प्रतीक्षा करेगा।' .
पूज्य गुरुदेव भीतर से जितने जागृत थे, उतने ही बाहर से हर पल जागृत दिखाई पड़ते थे। भूत्यै जागरणम्, अभूत्यै स्वपनम्' यजुर्वेद के इस सूक्त में उनकी पूरी आस्था थी। आचार्यकाल में अनेक बार रात्रिजागरण का काम पड़ता लेकिन उनके चार बजे उठने के क्रम में कोई अन्तर नहीं आता। उनका यह वक्तव्य उन लोगों को अवश्य प्रेरणा देने वाला है, जो ९-१० बजे तक सोते ही रहते हैं- 'मेरी प्रकृति ही कुछ ऐसी बन गई है कि चार बजे के बाद तो मेरा सोने का मन ही नहीं करता। भले मैं रात को दस बजे सोऊं, बारह बजे सोऊं या दो बजे, चार बजे तो प्रायः उठ ही जाता हूं। मैं नींद का जमा खर्च भी नहीं रखता। कल देर से सोया तो आज दिन में दो घंटे सोकर उसकी पूर्ति करूं, यह मेरे मन को नहीं भाता।'
पूज्य गुरुदेव का मानस हर घटना से आत्मजागृति का सबक लेता रहता था। नर्मदा नदी को पार करते हुए सहसा उनके मुख से प्रेरणा की अजस्र धारा प्रवाहित होने लगी- 'जिस प्रकार आज हमने नौका द्वारा नदी को पार किया है, उसी प्रकार संसार-समुद्र को भी हंसते-हंसते पार कर